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________________ ऐसी अद्भुत आध्यात्मिक साधना है जिससे साधक बाहर से अंदर सिमटता है। वह अशुभ का बहिष्कार कर शुभ संस्कारों से जीवन यापन करता है और शुद्धत्व की ओर अपने दृढ़ कदम बढ़ाता है। दीक्षा में साधक अपने आप पर शासन करता है। आचार्य हेमचंद्र ने दीक्षा की परिभाषा करते हुए लिखा है - दीयते ज्ञानसद्भाव: क्षीयते पशुबन्धनाः। दानाक्ष परमसंयुक्त: दीक्षा तेनेह कीर्तिता॥ दीक्षा एक रासायनिक परिवर्तन हैं। सात्विक जीवन जीने की अपूर्व कला है। आत्म साधना के परम और चरम बिन्दु तक पहुँचाने वाले सोपान का नाम दीक्षा है। दीक्षा में पांचों महाव्रतों का जीवन पर्यन्त पालन करना होता है। 'सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि' के सदृढ़ कवच को पहनकर ही साधक सद्गुरु देव के पथ प्रदर्शन में साधना के पथ पर आगे बढता है तथा अपने पर नियंत्रण करता है। दीक्षा अन्तर्मुखी साधना है। मानव मस्तिष्क सुदीर्घ काल से सत्य की अन्वेषणा कर रहा है। उसने जड़ तत्व देखा परखा और गहराई में पढ़कर परमाणु जैसे सूक्ष्म तत्व में निहित विराट शक्ति की अन्वेषणा की। मानव सभ्यता ने विज्ञान पर विजय फहराकर जन मानस को मुग्ध किया है, पर यह जड़ वेषणा वास्तविक शांति प्रदान नहीं कर सकी। किंत जब मानव ने अपने अंदर निहारा तो अपनी अनंत आत्मशक्ति के दर्शन किये और परम शांति का अनुभव किया। दीक्षार्थी अपने विशुद्ध परमतत्व की खोज के लिये निकलने वाला एक अंतर्यात्री है। वह अंतर में प्रवेश करता है। निरंतर आने वाले आवरणों को तोड़ कर परम चैतन्य चिदानंद स्वरूप परमात्म तत्व को प्रकट करने का, उसको अनुभव करने का प्रयास करता है। आहती दीक्षा वही व्यक्ति ग्रहण करता है। जिसके मन में वैराग्य का पयोधि उछाले मारता हो। जिसमें जितनी अधिक वैराग्य भावना बलवती होती है। वह उतना ही अधिक द्रुतगति से आगे बढ़ता है। आगम साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि किसी भी जाति पांति तथा वर्ण का व्यक्ति श्रमणधर्म को स्वीकार सकता है। केवल सामान्य स्त्री-पुरूष ही संसार का परित्याग नहीं करते थे अपितु जिनके पास अपार वैभव के अंबार लगे हुए होते, सत्ता और सम्पत्ति जिनके चरण चूमते वे भी साधना के पथ पर सहर्ष कदम बढ़ाते। ऐसे हजारों श्रेष्ठीपुत्र, राजा सम्राट और सामंत, राजनीति विशारद, षड्दर्शन के ज्ञाता, मूर्धन्य मनीषीगण वीर योद्धा तथा अत्यन्त सुकुमार राज-रानियां, राजपुत्रियाँ और भोगों में डूबे हुए व्यक्ति भी भोगों की निस्सारता को समझ कर त्याग मार्ग को अपनाते रहे है। दीक्षा ग्रहण करने वाला साधक संसार एवं संसारी जनों के प्रति आसवित्त एवं मोह को त्याग देता कानीबाई को दीक्षा की अनुमति मिल गई। अब मार्ग प्रशस्त हो गया। दीक्षा के लिये माघ शुक्ला दशमी वि.सं. १९८९ का शुभ मुहूर्त निकला। शुभ-मुहूर्त ज्ञात होने पर दीक्षोत्सव की तैयारियां आरम्भ होने लगी। दीक्षोत्सव में सम्मिलित होने के लिये आसपास के ग्राम नगरों से तथा दूरस्थ नगरों से भी श्रद्धालुओं का आगमन होने लगा। कुचेरा को विभिन्न प्रकार से सजाया भी गया। और फिर वह दिन भी आ गया जिसकी कानीबाई और अन्य सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। माघ शुक्ला दशमी, वि.सं. १९८९ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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