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(३) संगार प्रव्रज्या :- परस्पर प्रतिज्ञा बद्ध होकर ली जाने वाली दीक्षा। एक जैनाचार्य ने वैराग्योत्पत्ति के तीन कारण निम्नानुसार बताये हैं।
(१) दुःखगर्भित वैराग्य :- दुःख संकट या पीड़ा से वैराग्य की उत्पत्ति हो, वह दुःख गर्भित वैराग्य है। दुःख दूर होने पर यह वैराग्य जा भी सकता है।
(२) मोहगर्मित वैराग्य :- माता-पिता, पुत्र, स्त्री आदि परिजनों के वियोग होने पर मोहवश जो विरक्ति होती है, ऐसी विरक्ति के भाव को मोहगर्भित वैराग्य कहते है। यह मध्यम वैराग्य है। '
(३) ज्ञानगर्भित वैराग्य :- शुभ कार्यों के उदय से गुरु के उपदेश के कारण अध्ययन से संसार के प्रति विरक्ति के भाव उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे विरक्ति के भाव से उत्पन्न वैराग्य ज्ञानगर्भित वैराग्य कहलाता है। यह वैराग्य श्रेष्ठ और स्थाई होता है।
वैराग्योत्पति के कारण देखने से स्पष्ट है कि दीक्षा ग्रहण करने के लिये कोई एक कारण नहीं है। इन सब कारणों में सर्वश्रेष्ठ कारण कौन सा हो सकता है? यह प्रश्न भी स्वाभाविक है। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि विवेक पूर्वक ली जाने वाली दीक्षा श्रेष्ठ हैं। दूसरे शब्दों में इसे ज्ञानगर्भित कारण भी कह सकते है। यही वैराग्य सर्वश्रेष्ठ है, स्थायी है।
वैराग्योत्पत्ति के प्रकारों को देखने से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि कानीबाई का वैराग्य ज्ञानगर्भित था। प्रत्येक परिस्थिति में उनका त्याग तपस्या आदि का कार्यक्रम सतत् चल रहा था। दिन प्रतिदिन उनका वैराग्य बढ़ता जा रहा था। दीक्षा की अनुमति :
मुमुक्षु को भले ही ज्ञानगर्भित वैराग्य हो जावे, वह प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिये कितनी ही जल्दी करें, किंतु उसे तब तक दीक्षा नहीं दी जा सकती जब तक कि उसके परिवार की ओर से दीक्षा ग्रहण करने के लिये अनुमति नहीं मिल गई हो। अनुमति मिलने के पश्चात् कभी भी शुभ मुहूर्त में दीक्षा प्रदान कर दी जाती है। जैन आगम साहित्य में एक भी व्यक्ति ऐसा दिखाई नहीं देता, जिसने बिना अनुमति दीक्षा ली हो।
कानीबाई का वैराग्य तो परिपक्व हो चुका था किंतु ज्येष्ठ भ्राता की भावना यह थी कि वे गृह-स्थावस्था में ही रहे। किंतु जब उन्होंने कानीबाई की त्याग-तपस्या देखी, विरक्त भावना देखी और देखी उनकी दृढ़ता तो वे इन सब बातों पर विचार करने के लिये विवश हो गये और एक दिन उन्हें अपनी बहन की वैराग्य भावना को स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति देनी पड़ी। दीक्षा का आज्ञा पत्र श्री फूसालाल सुराणा ने लिखकर दे दिया। दीक्षा :
दीक्षा एक आध्यात्मिक साधना है। इसका स्थान शिक्षा से कहीं अधिक ऊँचा है। दीक्षा के महत्व के विषय में श्रमण संघीय आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने लिखा है कि आर्हती दीक्षा साधक के उस अटकने भटकने को रोकने का एक उपक्रम है। वह ऐसी अखंड ज्योतिर्मय यात्रा है जिससे साधक असत् से सत की ओर तमस् से आलोक की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है। वह
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