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महासती श्री सरदार कुवंरजी म.सा. का विहार और आगमन का क्रम चलता रहता था। इधर कानीबाई का चिंतन भी चल रहा था। ऐसे ही एक बार जब महासतीजी ने अपनी शिष्याओं के साथ कुचेरा से विहार किया तो परम्परानुसार कुछ श्रावक-श्राविकायें उन्हें विदा करने के लिये साथ साथ चले। इन श्राविकाओं में कानीबाई भी थी। महासतीजी के साथ चलते चलते कानीबाई खजवाना तक चली गई। तब इस अवसर पर किसी ने कह दिया की कानीबाई तो दीक्षा लेगी। यह बात सहज में कहीं गई थी किंतु इसका प्रभाव कानीबाई पर गहरा हुआ। उनका वैराग्य भाव अभी तक उन तक ही सीमित था। अंदर रहे हए वैराग्य भाव बाहर भी प्रकट होने लगे। किंत कानीबाई ने अपने भावों को फिर भी प्रकट नहीं होने दिया। उन्होंने अपना मन ज्ञान-ध्यान की ओर केंद्रित कर दिया। अब उनके सम्मुख संसार की असारता प्रकट हो गयी थी। इसीलिये अब वे उस ओर से उदासीन रहने लगी थी। उनके जीवन में अब एक नया मोड़ आ गया था। आपका वैराग्य प्रस्फुटित हो चुका था और ज्ञानाराधना के साथ ही तपाराधना भी प्रारंभ हो चुकी थी। आपका वैराग्य काल लगभग ढाई वर्ष का रहा। इस अवधि की उल्लेखनीय बात यह है कि आप एक माह में दो दो अठ्ठाइयां करते थे।
ज्येष्ठ भ्राता श्री फूसालालजी को कटंगी में अपनी बहन की वैराग्य भावना का पता चला तो वे कुचेरा आए और कानीबाई को काफी समझाया कि जिस पथ की ओर वे अग्रसर हो रही है, उस पथ पर चलना खांडे की धार पर चलने के समान है जितना सरल अभी वह मानकर चल रही है, वह पथ उतना सरल नहीं है। अच्छा तो यही है कि यह सब छोड़कर वह अपने घर के कार्यों में मन लगाये। फूसालालजी की इस समझाइश का कानीबाई पर कोई असर नहीं हुआ। इस पर फूसालालजी ने विचार किया कि बहन को कुचेरा से कटंगी ले जाया जाय। वहां के वातावरण में और कुचेरा के वातावरण में बहुत अंतर है। कटंगी जाने पर वैराग्य का रंग उतर जायगा और फिर यह सामान्य रूप से घर के काम काज में लग जावेगी। ऐसा विचार कर वे अपनी बहन कानीबाई को अपने साथ लेकर कटंगी आ गए। उनका विचार था की कुचेरा और कंटगी के वातावरण में काफी अंतर है। कटंगी में मुनिराजों और महासितियों का आवागमन भी नहीं के समान है। जब इनका सम्पर्क नहीं रहेगा तो जो धार्मिक रंग बहन पर चढ़ रहा है, वह उतर जायेगा और सब कुछ सामान्य हो जायेगा। किंतु उनकी ऐसी धारणा मिथ्या ही रही। भव्य जीवों पर किसी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ज्येष्ठ भ्राता ने आपको कटंगी में लाकर संसार में बनाये रखने का प्रयास किया किंतु इसका कोई प्रभाव नहीं हआ। कानीबाई के त्याग और तपाराधना में कटंगी आकर भी कोई अंतर नहीं पड़ा। बल्कि कटंगी में आकर उनकी वैराग्य भावना और अधिक प्रबल हो गई। कटंगी आकर उन्होंने हरी साग सब्जी और कच्चे पानी का भी त्याग कर दिया। आपके त्याग, तपस्या और वैराग्य भावना को देखकर ज्येष्ठ भ्राता श्री फूसालालजी ने विचार किया कि कानीबाई अब संसारावस्था में रहने वाली नहीं है, और जबरन उन्हें रोकने का प्रयास करना भी उचित नहीं है ऐसा विचार कर एक दिन उन्होंने अपनी बहन को दीक्षा व्रत अंगीकर करने के लिये परिवार की ओर से अनुमति लिखित रूप में दे दी। वैराग्य के कारण
दीक्षा लेने के लिये वैराग्य आवश्यक है। जब तक वैराग्योत्पति नहीं होती, प्रव्रज्या ग्रहण करना संभव नहीं होता। जैन शास्त्रों में वैराग्योत्पति के दस कारण निम्नानुसार बताये गये है।
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