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________________ नहीं आई। कानीबाई पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। दुःख की इस घड़ी में अपने मन की बात किस से कहे। मन मस्तिष्क में एक उथल पुथल मची हुई थी। यह उथल पुथल क्या थी? यह स्वयं कानीबाई भी समझ नहीं पा रही थी। पावन सान्निध्य धीरे धीरे समय बीतता गया और दुःख कम होता गया। पहले माता-पिता के वियोग का दुःख था। विवाह के पश्चात् ससुराल में आकर कानीबाई का वह दुःख कम हो गया किंतु पति के वियोग ने कानीबाई को एक बार पुनः झकझोर दिया। उनके मानस पटल पर अनेक अनुत्तरित प्रश्न मंडराने लगे थे। समय के प्रवाह के साथ दुःख भी कम होता गया। कहा भी गया है कि समय सबसे बड़ी औषधि है। ऐसे समय में कुछ संयोग भी मिल जाते है। कुचेरा एक ऐसा क्षेत्र है, जहां मुनिराजों और महासतियों का आगमन सतत् बना रहता था। यद्यपि इस क्षेत्र में सभी सम्प्रदाय और समुदाय के मुनिराज और महासतियों का आगमन होता था किंतु आचार्य भगवंत श्री जयमलजी म.सा. की समुदाय का इधर विशेष प्रभाव था, उस समय शासन प्रभाविका साध्वीरत्ना महासती श्री सरदार कुवंरजी म.सा. एक उच्च कोटि की परम विदुषी और प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। महासती मंडल के कुचेरा आगमन से धर्म की गंगा प्रवाहित होने लगी। आबाल वृद्ध उनके प्रवचन पीयष का पान करने के लिये जाने लगे। अपने परिवार की सदस्याओं के साथ प्रवचन श्रवण एवं महासतीजी के दर्शनों का लाभ लेने के लिये कानीबाई भी जाने लगी। महासतीजी के प्रवचनों का प्रभाव कानीबाई पर विशेष हुआ। संपर्क में वृद्धि होने लगी और कानीबाई के जीवन में परिवर्तन के लक्षण दिखाई देने लगे। वैराग्य की ओर पू. महासतीजी के प्रवचन बहुत ही सटीक और प्रभावशाली होते थे। समसामयिक विषयों पर उनका प्रस्तुतीकरण अद्वितीय होता था। अपने प्रवचनों में विषयों का प्रस्तुतीकरण वे कुछ इस प्रकार करती थी। कि विषय वस्तु श्रोता के अंतर को झकझोर देती थी। एक दिन उनका प्रवचन मानव जीवन पर चल रहा था। इसी प्रवचन में उन्होंने फरमाया कि मनुष्य जन्म ही एक ऐसा जन्म है जिसमें वह अपना कल्याण कर जीवन मरण के चक्कर से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। समय रहते भव्य जीवों को जाग्रत हो जाना चाहिये। इन नश्वर संसार में कुछ भी स्थाई नहीं हैं। केवल आत्मा ही एक ऐसा है जो अजर अमर है। यदि हमने इस मानव देह को सांसारिक कार्यों में/मोहों में फंसा दिया तो फिर इसके उद्धार का कोई मार्ग नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि कि नत्थि कालस्स अणागमों। काल का आक्रमण प्रतिपल चालू है। वह कब आ जाये और इस देह को अपना ग्रास बना ले। इसलिये जो कुछ करना है, उसमें संकल्प विकल्प को स्थान नहीं है। एक एक पल मूल्यवान है। इसे व्यर्थ नहीं गवांना चाहिये। महासतीजी की इस मंगल वाणी का कानीबाई के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके चिंतन की दिशा बदल गई। शोक में डूबी रहने वाली कानीबाई अब ध्यान मग्न रहने लगी और जैसे ही समय मिलता वे महासतीजी के पावन सानिध्य में जा बैठती। वहां वे महासतीजी से विभिन्न प्रश्नों के द्वारा अपने मन की शंकाओं का समाधान पाती। महासतीजी का सान्निध्य मिलने से ज्ञान प्राप्ति का मार्ग तो प्रशस्त हुआ ही साथ ही कानीबाई के सम्मुख संसार की असारता का भाव भी प्रकट हो गया। गृह कार्यों के प्रति कानीबाई की उदासीनता बढ़ने लगी और उनका मन वैराग्य की और उन्मुख हो गया। (३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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