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________________ श्री मिश्रीमल की दीक्षा विधि सानंदनिर्विध सम्पन्न हुई और बालक मिश्रीमल, मुनि मिश्रीमल जी म.सा. के रूप में जन जन के सम्मुख आये। अध्ययन:- अल्पवय में संयममार्ग ग्रहण किया, इसलिये विद्यालयीन शिक्षा के सम्बन्ध में विचार भी नहीं किया जा सकता। बाल्यकाल में माता द्वारा जो धार्मिक संस्कार दिये गये वहीं बाल मुनि मिश्रीमल जी की प्रारंभिक शिक्षा थी। संभव है, कुछ अक्षर ज्ञान भी प्राप्त किया हो। दीक्षा ग्रहण करने के उपरांत स्वामी श्री जोरावरमलजी म.सा. एवं स्वामी जी हजारीमल जी म.सा. ने बाल मुनि श्री मिश्रीमल जी म.सा. के लिये अध्ययन की समुचित व्यवस्था करवाई। आप भी दत्तचित्त होकर अध्ययन की दिशा में प्रगति पथ पर अग्रसर होने लगे। आपके अध्यापन के लिये संस्कृत-प्राकृत के लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों को बुलाया गया। भाषा ज्ञान के साथ ही आप संस्कृत व्याकरण, कोश, प्राकृत व्याकरण, जैन आगम, उनकी टीकाएं, न्याय-दर्शन आदि का ज्ञान भी आप प्राप्त करने लगे। व्याकरण और नव्य-न्याय की शिक्षा के लिए अनेक मैथिल विद्वानों को आमंत्रित किया गया। सविख्यात विद्वान प.बेचरदास जी जोशी. डा. इन्द्रचन्द्र शास्त्री, पं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल आदि की देखरेख में आपकी यह ज्ञान-यात्रा गतिमान होती रही और लगभग दस बारह वर्ष की अवधि तक आपने कठोर परिश्रम, दृढ अध्यवसाय और एकाग्र चित्त के साथ ज्ञानार्जन किया। इस अवधि में आपने अध्ययन, भाषण और लेखन तीनों में प्रौढ़ता प्राप्त कर ली। इसके साथ ही आपने विविध विषयों के ग्रंथों का भी अनशीलन किया। कुल मिलाकर आपने तीस वर्ष की आय में स्थानकवासी जैन धर्मावलम्बियों के एक विद्वान, कुशल प्रवचनकार और सिंहस्थ लेखक के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर ली। यह सब आपकी लगन, निष्ठा और कठोर परिश्रम का ही परिणाम था। आचार्य पदः प्राप्ति व त्यागः- जय गच्छ के अष्टम आचार्य श्री कानमल जी म.सा. का स्वर्गवास वि.सं. १९८५ में हो जाने से आचार्य का पद रिक्त था। कुछ वर्षों तक जय गच्छ की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वामीजी जोरावरमल जी म.सा. सम्भालते रहे। उनके स्वर्गवास के पश्चात स्वामी श्री हजारीमल म.सा. ने जयगच्छ की व्यवस्था सम्भाल ली। दोनों ने पद ग्रहण नहीं किया। यद्यपि दोनों का प्रभाव किसी आचार्य से कम नहीं था। वि.सं. १९८९ में छ: सम्प्रदायों के मुनि सम्मेलन में मुनि श्री हजारीमल जी म.सा. को प्रवर्तक और मुनिश्री चौथमल जी म.सा. को मंत्री पद पर नियुक्त किया गया। इस प्रकार जयगच्छ के आचार्य का पद रिक्त ही रहा। इसी बीच मुनिश्री मिश्रीमल जी म.सा. एक सुयोग्य विद्वान, आगमज्ञ, कुशल प्रवचनकार के रूप में समाज के सम्मुख आये। चारों ओर से उन्हें आचार्य पद प्रदान करने की मांग उठने लगी। किंतु आपको नालसा नहीं थी. इस कारण आपने इस प्रस्ताव को निर्लिप्त भाव से अस्वीकार कर दिया। किंतु इस संबंध में, आप पर पद ग्रहण करने के लिये दबाव बढ़ता ही गया और अंतत: वि.सं. २००४ में अपने स्वभाव के विपरीत समाज का दबाव बढ़ने पर आचार्य पद स्वीकार करना ही पड़ा। अब आप आचार्य श्री जसवंतमल जी म.सा. के रूप में जयगच्छ का नेतृत्व करने लगे। आपका नाम बदल गया, पद बदल गया किंतु स्वभाव, जो मिश्री सहशथा, नहीं बदला। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो जाने के उपरांत वे बेचैनी का अनुभव करने लगे। सम्प्रदायों की आपसी खींचातानी से वे क्षुब्ध थे। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्हें शांति कैसे मिलती। अंततः आपने आचार्य पद लिया। आपके इस निर्णय से कुछ लोग नाराज भी हुए। अंतत: आपने अपने निर्णय को मूर्त रूप प्रदान कर दिया। आचार्य पद का त्याग कर दिया। आपका यह अद्भूत त्याग वैसे तो सभी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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