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________________ एक बार की बात है कि स्वामी श्री जोरावरमल जी म.सा. स्थानक भवन में प्रवचन फरमा रहे थे। बालक मिश्रीमल ने स्थानक के बाहर कुछ समवय के बालकों को एकत्र किया। स्वयं एक चबूतरे पर बैठ गए और बालकों से कहा-“मैं तुम्हारा गुरु हूँ। तुम सब मेरे चेले हो। मैं बखाण दे रहा हूं, तुम खमा बापजी बोलना।” बालकों का यह धार्मिक खेल चल ही रहा था कि माता तुलसीबाई ने आकर बालक मिश्रीमल को घर चलने का कहा। इस बालक मिश्रीमल ने उत्तर दिया -“मैं अभी बखाण दे रहा हूं। घर नहीं जाऊंगा।" में मिश्रीमल ने यहां तक कह दिया कि वह गरु महाराज के पास जायेगा तो फिर घर नहीं आयेगा। माता तुलसीबाई ने अपने पुत्र की बातों का और बखाण का विवरण स्वामी श्री जोरावर म.सा. को कह सनाया। स्वामी जी सब कुछ सनकर और बालक मिश्रीमल को देखकर केवल मुस्करा कर गए। ऐसा प्रतीत होता था. मानो उनकी अनभवी आंखों ने बालक का भविष्य पढ़ लिया हो। बालक मिश्रीमल के गुणों को देखकर यह कहावत सहसा स्मरण हो आती है कि होनहार बिरवान के होत चिकने पात अथवा पूते के पांव पालने में नजर आते हैं। धीरे धीरे बालक मिश्रीमल में धर्म के प्रति और अधिक रुचि जागृत हुई और संस्कार दीक्षा की तैयारी के होने लगे। माता व पुत्र का वैराग्य:- प्रायः ऐसा होता हैं कि जब पुत्र दीक्षा लेने की बात करता है तो माता उसे समझाती है, दुःख प्रकट करती है आंसू बहाती है। ऐसे उदाहरण जैन परम्परा में अनेकों मिल जावेगें किंतु ऐसा उदाहरण शायद ही मिले कि माता पुत्र को दीक्षा के लिए प्रेरित करें। ___ महासती श्री सरदार कुंवर जी म.सा. बड़ीशांत विलक्षण और व्यवहार कुशल थी। महासती जी के पावन सानिध्य में माता तुलसीबाई के हृदय में वैराग्य के भाव अंकुरित हुए। किंतु उन्होंने विचार किया कि स्वयं संयमव्रत अंगीकार करने के पूर्व यदि पुत्र मिश्रीमल को इस पथ पर अग्रसर कर सकू तो उसका जीवन संवर जावेगा माता ने जिस पथ का अपने लिए चुनाव किया उसी पथ पर अपने पुत्र को भी चलने के लिये प्रेरित किया। जिस समय माता ने स्वयं द्वारा दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपने पुत्र से उसकी इच्छा प्रकट कने के लिए कहा तो मिश्रीमल ने उत्तर दिया “माता जी! आप तो मेरे ही मन की बात कर रही है। मेरा भी मन होता है कि गुरुदेव के चरणों के निकट ही बैठा रहूं। एक क्षण के लिए भी उनसे अलग होना नहीं चाहता। गुरुदेव के पास जाने के पश्चात् वहां से हटने के लिए मेरा मन नहीं करता।” अपने पुत्र की बात सुनकर माता तुलसीबाई का मन प्रसन्न हो गया। जैसा वे चाहती थी, वैसा होना दिखाई देने लगा। यथासमय माता तुलसीबाई ने गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी म.से अपने पुत्र को दीक्षा प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। दीक्षा में विन:- बालक मिश्रीमल की दीक्षा की बात परिवार के सदस्यों को मिली तो वे विचलित होकर दीक्षा में विधन उत्पन्न करने लगे। बात जोधपर राज्य तक पहुंची। इस विषयक आदेश मेडता के मजिस्टेट श्री बादरमल जी गदैया के पास भी पहंचे। आदेश में कहा गया था कि बालक अवयस्क हैं, इसकी दीक्षा रोक दी जाय। मजिस्ट्रेट ने बालक मिश्रीमल की परीक्षा ली, उसकी मानसिक (३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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