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________________ भाई - भोजाई का अपार स्नेह और नवपरिणीता का प्रेम बंधन । एक और पत्नी द्विरागमन ( मुकलावे) की अपलक प्रतीक्षा कर रही थी, मन में रंग-बिरंगे सपने संजो रही थी तथा दूसरी और आचार्य श्री भूधर जी का प्रवचन सुन पति शिवसुन्दरी को वरण करने की तैयार करने लगा था, श्रमण बनने की इच्छा प्रकट करने लगा था। अपने दृढ़ निश्चय के अनुसार पारिवारिक जनों की आज्ञा लेकर विक्रम संवत १७८७ की मार्ग शीर्ष कृष्णा प्रतिपदा (एकम) के दिन जयमलजी दीक्षार्थी बन गए, प्रेयार्थी से श्रेयार्थी बन गए। जयमल्ल जी शीघ्रातिशीघ्र दीक्षित बनना चाहते थे। उन्होंने दूसरे दिन प्रातः ब्रह्रावेला में गुरुदेव से पूछा- भगवन् दीक्षा जल्दी से जल्दी अब कैसे आ सकती है ? " वैसे तो दीक्षार्थी को कुछ दिन हमारे साथ विचरण कर साधुचर्या के आवश्यक अंग एवं आवश्यक क्रियाओं को समझ लेना चाहिए, तभी छोटी दीक्षा दी जाती है परन्तु नियमानुसार कम से कम प्रतिक्रमण - सूत्र जब तक कंठस्थ नहीं हो जाता तब तक तो दीक्षा दी ही नहीं जा सकती" । - आचार्य श्री ने फरमाया । “ अच्छी बात है, जब तक प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ न हो जाए तब तक मुझे खड़े रहने के पच्चक्खाण दिला दें" । जयमल जी ने विनय-पूर्वक हाथ जोड़ कर प्रार्थना की। पहले तो आचार्य श्री को आश्चर्य हुआ फिर दीक्षार्थी की तीव्र लगन देखकर पूज्यश्री ने अन्य संतों को प्रति-लेखना आदि कार्यों में संलग्न किया और स्वयं जयमल जी को प्रतिक्रमण सूत्र के पाठ सिखाने लगे। अभी एक प्रहर ही बीता होगा, जयमलजी ने सम्पूर्ण प्रतिक्रमण कण्ठस्थ कर सुना दिया। सभी उनकी असाधारण ग्राहक - बुद्धि एवं धारणा-शक्ति से बहुत प्रभावित हुए। ऐसा शीघ्र-मति, प्रखर बुद्धि व विलक्षण धारणा वाला दीक्षार्थी भूधर जी को आज तक नहीं मिला था। उन्होंने ऐसे दीक्षार्थी को तुरन्त ही दीक्षित करने का निश्चय कर अपनी इच्छा मेड़ता - श्रीसंघ के आगेवान श्रावकों के सम्मुख रखी। कार्यवशात् लांबिया के लोग भी मेड़ता ही रुके हुए थे। मेड़ता में दीक्षा उत्सव की भव्य तैयारियां होने लगीं और संवत् १७८७ के मार्गशीर्ष मास में कृष्ण पक्ष की द्वितीया (मिगसर वदी दूज) के दिन बहुत ही ठाट-बाट से जयमल जी पूज्य श्री भूधर जी महाराज के पास दीक्षित हो गए। - अभी जयमल जी मुनिवेष धारण कर दीक्षित बने ही थे कि वे आचार्य श्री के सम्मुख हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। आचार्य श्री ने पूछा- क्या इच्छा हैं? “ आपका गुरु - छत्र जब तक मेरे सिर पर है तब तब में एकान्तर (एक दिन छोड़कर एक दिन) उपवास करना चाहता हूँ। उसमें भी दूज, पांचम, आठम, ग्यारस और चौदस - इन पांच तिथियों को पारणे में पांचों विगयों (घी, दूध, दही, तेल और मीठा) को भी छोड़ना चाहता हूं। कृपा कर आज्ञा दीजिए" । - जयमल जी ने कहा । अटल निश्चय की मुद्रा देख आचार्य श्री ने उन्हें पच्चक्खाण दिला दिए । दीक्षा-स्थल जैन धर्म, आचार्य श्री भूधर जी एवं नवदीक्षित मुनि जयमल जी की जय-जयकार से गूंज उठा। इनकी बड़ी दीक्षा सात दिन बाद गुरुवार, मिगसर वद नवम को बिखरणिया ग्राम में हुई। दीक्षा बाद गुरु सेवा, तप-त्याग और ज्ञानाभ्यास में मुनि जयमल जी लीन हो गए। इनके शिक्षा गुरु थे, किसी समय के काशी के पण्डित, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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