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' स्वच्छ प्रज्ञा सत्यानुलक्षी प्रतिभा और गम्भीर श्रद्धा-स्निग्ध हृदय से अभिनन्दन चिन्तन सदा-सर्वदा सभी को मिलता रहे।
तुम कितनी भाग्यशालिनी हो कि तुम्हारी माँ - व्याख्यान वाचस्पति श्री गिरीश मुनिजी ने भी संयम-साधना को स्वीकार किया। और ACOCECONDSODEBB0000000000000000000000 वीरागना की तरह निरन्तर बढ़ती रही. तुम्हारा
लघु भ्राता भी श्रमण बना और साहित्य की विविध ज्योतिर्मय साधना के पचास पुण्य बसंत पार विधाओं मे लिखकर एक कीर्तिमान स्थापित किया, कर तुम इक्यावन बसंत में प्रवेश करने जा रही हो। और आज श्रमण संघ के वरिष्ट पद उपाचार्य पद हजारों-हजार समवेत स्वरों में तुम्हारा हृदय से पर आसीन हैं। स्वागत है। श्रद्धास्निग्ध हृदय से अभिनन्दन है। धन्य है तुम्हारा भाग्य, धन्य है तुम्हारा जीवन, क्योंकि तुमने संयम-साधना तपः आराधनाकर अपने धन्य हैं वे व्यक्ति जिन्होंने गुणानराग से उत्प्रेरित जीवन को धन्य बनाया है।
होकर अभिनन्दन का आयोजन किया है। अभितुम्हारा व्यक्तित्व अनूठा है, तुम्हारा कृतित्व नन्दन ग्रन्थ के माध्यम से हृदय की अनन्त श्रद्धा अदभुत है। तुमने जिन-शासन की गरिमा में चार मूर्त रूप ग्रहण करेगी। अतः लो मेरा भी सादर चाँद लगाये हैं। जिन धर्म की महिमा जन-मन में अभिनन्दन । प्रस्थापित हो इसके लिए तुमने प्रबल पुरुषार्थ किया है। तम सदा पर भाव से हट कर स्वभाव में रमण करती हो इसीलिए यह तुम्हारा अभिनन्दन है। ___ मेरा तुम्हारे से साक्षात् परिचय भी नहीं है,
चरणों में वन्दन कभी मैंने अपने चर्म-चक्षुओं से तुम्हें निहारा भी
-साध्वी दिव्यज्योति 'अर्पण' नहीं है । पर तुम्हारे सद्गुणों की सौरभ ने मेरे मन को मुग्ध किया है । तुम्हारे पवित्र-चरित्र की चारु
(बी. ए. सा. रत्न) चन्द्रिका ने मेरे हृदय को खिलाया है। इसलिए
-साध्वी ज्ञानप्रभा 'सरल' तुम्हारा अभिनन्दन है।
(बी. ए. सा.रत्न) साध्वी का परिचय क्या ? वह तो गुणों की साक्षात आगार है। उसके जीवन के कण-कण में, thesearch tedesbadeoseksbsessedesbsesordershdesebedesesesesesesesh मन के अणु-अणु में सद्गुणों का साम्राज्य होता है। वह जहाँ भी जाती है, वहाँ प्रकाश विकीर्ण करती
अभिनन्दन और अभिवन्दन की सुहावनी सुमहै। इसीलिए उसका अभिनन्दन है।
धुर सुखद बेला में श्रमण संघ की एक महान . अभिनन्दन की मंगल वेला में मेरी हादिक भव्य साधिका मातृतुल्या परम श्रद्धेया महासती श्री पुष्पभावना है 'चिरं जीव चिरं जय। क्योंकि तुम्हारे वती जी म. के चरण-सरोजों में हृदय के असीम पास जो अनुभूतियों का अथाह खजाना है। वह भावों के सरस-सुमन समर्पित करते हुए हम अपने जन-जन के हेतु सदा अर्पित और समर्पित करती आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रही हैं, कवि के रहो, तुम सरस्वती पुत्री हो, तुम्हारी स्फटिक सी शब्दों में कहूँ तो
चयणों में वन्दन | ३७
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