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________________ जैसे मिट्टी में गंध होती है। वह अव्यक्त गंध पानी का योग मिलते हो व्यक्त हो जाती है। अगर में गंध होती है, वह गंध अग्नि का सम्पर्क पाते ही व्यक्त हो जाती है। वसे हो आत्मा को अर्व शक्ति भो दीक्षा का संयोग पाते ही व्यक्त होने लगती है । दीक्षा वह संस्कार है जो आत्मा को असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। . यह एक परखा हुआ सत्य है-तपे बिना कोई भी व्यक्ति ज्योति नहीं बनता और खपे बिना कोई भी व्यक्ति मोती नहीं बनता। आत्मोपकार के बिना परोपकार नहीं हो सकता । परोपकार का उत्स आत्मोपकार ही है। जो अपने आप को गंवाकर दूसरों के निर्माण का स्वप्न देखता है वह दूसरों को बना नहीं पाता और वह अपने आपको भी गंवा देता है। दूसरों का वही निर्माण कर सकता है, जो पहले-पहले अपने आपका निर्माण करता है। महासती जी ने पहले अपने आपको साधना में, ज्ञान में, ध्यान में खपाया । इसलिए आज वे हमरा पथ प्रदर्शन करने में सक्षम हुई हैं। महासती जी सत्य की उपासिका हैं। बिना सत्य के व्यक्ति का जीवन अभय नहीं हो सकता। जहाँ पर सत्य नहीं होता, वहाँ पर अभय विकसित नहीं हो सकता । सत्य और अभय की समन्विति ने महासती जो को यथार्थ कहने की अपूर्व शक्ति प्रदान की। यही कारण है कि वे अपनी दुर्बलताओं को भी सहज रूप से स्वीकार कर लेती हैं। उनका मन्तव्य है कि अपनी भूलों को छिपाना, भूलों को प्रोत्साहन देना हैं । भूल को स्वीकार करने में संकोच किस बात का। लम्बे समय तक महासती पुष्पवती जी सिर की व्यथा से व्यथित रहीं। भयंकर वेदना होती थीं। डॉक्टर भी निदान नहीं कर सके कि किस कारण से व्यथा है। पर आपका मनोबल, आत्मबल इतना प्रबल रहा कि आप कभी भी पराजित नहीं हुई। आपका यह मन्तव्य है-तन की व्याधि उतनी खतरनाक नहीं हैं, जितनी मन की व्याधि-तन की बीमारी से भी मन की बीमारी भयंकर है। यदि मन “स्वस्थ है तो मन की व्यथा उतनी परेशान नहीं करेगी ? __ महासती जी सर्व धर्म समन्वय की समर्थक हैं, उनका मन्तव्य है कि सम्प्रदाय बुरे नहीं है, सम्प्रदायवाद बुरा है। विभिन्न सम्प्रदायें विभिन्न रुचि के प्रतीक हैं। सम्प्रदाय सद्भाव को नष्ट नहीं करती, विचार भेद भले ही हों, पर मनभेद नहीं होना चाहिए। हमें दूसरों के विचारों के प्रति सदा सहिष्णु रहना चाहिए। दूसरे के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना नहीं होनी चाहिए। श्रमण भगवान महावीर ने हमें अनेकान्तवाद का उदार दृष्टिकोण दिया है। फिर हम एकान्त दृष्टिकोण को अपना कर परस्पर क्यों लड़े, क्यों आपस में झगड़े। अग्नि का संस्पर्श पाकर काला-कलूटा कोयला भी सोने की तरह चमकने लगता है। उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है। वैसे ही महासतो जो के सानिध्य से अनेक भव्य जीवों के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है । उनकी महान् विशेषताओं का अंकन करना हमारी शक्ति से परे हैं। पूना सन्त सम्मेलन के पावन प्रसंग पर आप श्री के दर्शन हुए । आपकी महिमा और गरिमा हमने बहुत पहले भाई श्री देवेन्द्र मुनि जो से सुन रखी थी, पर साक्षात् दर्शन कर हमें यह अनुभूति हुई कि जितना सुना था उससे अधिक आपको देखा । उपाचार्य चद्दर महोत्सव पर हमने अपने प्यारे भाई महाराज का अभिनंदन किया, और अब आपका अभिनन्दन कर रही है । इस मंगल बेला में हमारी यही मंगलकामना है कि वे पूर्ण स्वस्थ रहकर समाज को सतत मार्गदर्शन करती रहें। ३० | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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