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साध्वीरज पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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दर्शन में असम्प्रज्ञात समाधि है और जैन दर्शन में केवली की स्थिति है। इसीलिए (भावमनसासंज्ञाऽभावाद्रव्यमनसा च तत् सद्भावात्)18 केवली नोसंज्ञी कहलाता है । इसका नाम असम्प्रज्ञात है। क्योंकि इस अवस्था में भाव मनोवृत्तियों का अवग्रह आदि क्रम से सम्यक् परिज्ञान का अभाव हो जाता है। केवली की असम्प्रज्ञात दशा ही योग दर्शन में असम्प्रज्ञात समाधि कही गई है। यशोविजय ने अपने इस कथन की पुष्टि हरिभद्रसूरिविरचित योगबिन्दु की निम्न कारिका से की है।
"असम्प्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः।
निरुटाशेषवृत्त्यादि तत्स्वरूपताऽनुवेधतः ॥19 पतञ्जलि के अनुसार चित्त की अवस्थाएँ पाँच प्रकार की हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । विज्ञानभिक्षु के अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध जो कि द्रष्टा को वास्तविक स्वरूप में अवस्थित कराने का हेतु हो वही योग कहा जा सकता है, अन्य नहीं। अतः एकाग्र और निरुद्ध भूमि में होने वाले निरोध को ही योग कहा जा सकता है । एकाग्र भूमिगत वृत्ति निरोध चित्त में सद्भूत पदार्थ परमार्थ को प्रकाशित करता है, क्लेशक्षय करता है, कर्माशय को शिथिल करता है और असम्प्रज्ञात समाधि में सहायक बनता है अतः एकाग्र भूमिगत वृत्तिनिरोध सम्प्रज्ञात योग है तथा निरुद्ध भूमिगत वृत्तिनिरोध वृत्तियों का पूर्ण निरोध होने से असम्प्रज्ञात समाधि का साक्षात साधन है, अतः योग है। शेष चित्त की अवस्थाओं में होने वाला चित्तवृत्तिनिरोध क्लेश कर्माशय का जनक होने से चित्तवृत्तियों के क्षय का हेतू नहीं होने से तथा स्वरूपावस्थिति का हेतू नहीं होने से उन अवस्थाओं में योग के लक्षण की अति व्याप्ति की शंका नहीं करनी चाहिये।
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सन्दर्भ ग्रन्थ एवं सन्दर्भ स्थल
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१. दर्शन और चिन्तन, प्रथम खण्ड, पृ० २३० । २. युजं पी योगे । हेमचन्द्र धातुमाला, गण ७ । ३. वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीव परिणाम विशेषः ।
जैन परिभाषा-आत्माराम जी महाराज-जैन योग : सिद्धान्त और साधना, पंजाब, १९८३, १०३२ । ४. युज समाधौः । ५. (अ) योगः समधिः-योगसूत्र, प्रथमपाद, १ सूत्र, व्या० भा पृ० १। (ब) युज समाधौ, इत्यस्माद्व्युत्पन्नः समाध्यर्थो न तु 'युजिर योगे' इत्यस्मात्संयोगार्थे इत्यर्थः ।
योगसूत्र, प्रथमपाद, १ सूत्र त० वै०, पृ० ३ । (स) युजसमाधावित्यनुशासनतः प्रसिद्धोयोगः समाधिः । -यो० सूत्र, प्रथमपाद, प्रथमसूत्र, यो० वा० पृ० ७I (द) “योगो युक्तिः समाधानम्" "युज समाधी"।
-यो० सू०, प्रथमपाद, भो० वृ० पृ०, ३ । ६. 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' ।
-यो० सू० १/२ ।
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'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' की जैनदर्शनसम्मत व्याख्या : राजकुमारी सिंघवी | ३६७ ।
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