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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
DARKO TOGANDEKAGJA. SOOTILI
चक्र का देवता है और डाकिनी उसकी शक्ति का नाम है । इस चक्र के अन्दर यन्त्र की कल्पना चन्द्राकार रूप में की गयी है । इसका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रिय रसना और कर्मेन्द्रिय लिङ्ग (उपस्थ ) से माना जाता है । अर्थात् इस चक्र की साधना के फलस्वरूप उपर्युक्त दोनों इन्द्रियाँ (रसना और उपस्थ) अपनी सम्पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर लेती हैं। दिव्य रस संवितु तो रसना की पूर्ण क्रियाशीलता का ही परिणाम है, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है । उपस्थ की पूर्ण शक्ति सम्पन्नता के फलस्वरूप साधक ऊर्ध्वरेता हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण का फल अहंकार आदि विकारों की पूर्ण निवृत्ति, मोह का नाश तथा अपूर्व कवित्व शक्ति की प्राप्ति भी है, जिसके फलस्वरूप साधक इच्छानुसार किसी भी भाषा में गद्य-पद्य रचना में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार उसे अनेक साधक योगियों के मध्य स्वतः श्रेष्ठता प्राप्त हो जाती है । अहंकार और मोह आदि संकीर्ण मनोभावों की पूर्ण निवृत्ति के कारण वह मन के समस्त विकारों से रहित होकर पूर्ण सन्तृप्ति का अनुभव करता है ।
मणिपूर चक्र
मणिपूर चक्र की स्थिति नाभि के निकट मेरुदण्ड में है। सूत्र में जिस प्रकार मणियां गुँथी होती हैं, उसी प्रकार समस्त नाड़ी चक्र इस पर गुम्फित रहता है, इसीलिए इस चक्र को मणिपुर नाम दिया गया है । यह स्थान अग्नि का स्थान माना जाता है । शरीर में स्वर्लोक की स्थिति भी यहीं मानी गयी है । इसीलिए प्राणायाम मन्त्र के एक अंश 'ओम् स्व:' का जप और उसके अर्थ की भावना इस चक्र को जागृत करने के लिए की जाती है। इस चक्र के जागृत होने पर इस चेतना केन्द्र के सभी ऊतक पूर्ण क्रियाशील हो जाते हैं । इन चेतना केन्द्रों (चक्र) में पूर्व चक्रों की अपेक्षा उत्तरोत्तर ऊतकों के गुच्छक अधिक हैं । फलतः उत्तरोत्तर चक्रों के दलों की संख्या में भी वृद्धि होती गयी है । इस चक्र में दस दल माने जाते हैं, जिनका वर्ण नीला स्वीकार किया जाता है। प्रत्येक दल में क्रमशः डँ ठँ जँ तँ यँ दँ धँ मेँ पँ फँ बीजमन्त्र माने गये हैं । अग्नि इस चक्र का प्रधान तत्त्व है, अतः अग्नि का बीजमन्त्र रँ चक्र के मध्य (कणिका) में माना जाता है । इस अग्नि तत्त्व का वाहन मेष और इस स्थान का देवता वृद्ध रुद्र स्वीकार किया जाता है, लाकिनी उसकी विशेष शक्ति का नाम है । प्रत्येक दल में स्वीकृत बीजमन्त्र इस चक्र अर्थात् ज्ञान और क्रिया के मूल चेतना केन्द्र के अंश विशेष के प्रतीक हैं । इस चक्र के यन्त्र की आकृति त्रिकोण है । रूप इस चक्र ( चेतना केन्द्र) का विशेष गुण है । ज्ञानेन्द्रिय नेत्र एवं कर्मेन्द्रिय चरणों से इस चक्र का विशेष सम्बन्ध है । फलतः इस चक्र के जागृत हो जाने से साधक को दिव्य रूप संवित् की सिद्धि हो जाती अर्थात् साधक अपनी इच्छानुसार स्वयं विविध दिव्य रूपों का साक्षात्कार करने लगता है और उसकी कृपा से अन्य जन भी अद्भुत रूपों का साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाते हैं। साथ ही इन दोनों इन्द्रियों (नेत्र एवं चरण) के अतिशय शक्ति सम्पन्न हो जाने के कारण साधक को दूरदृष्टि एवं दूरगमन का सामर्थ्य भी प्राप्त हो जाता है ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भणिपुर चक्र अग्नि तत्त्व का स्थान है, अतः इस चक्र के जागृत होने से उसे आग्नेय धारणा की सिद्धि हो जाती है फलतः साधक को अग्नि तत्व पर विजय प्राप्त हो जाती है, वह अग्निकुण्ड में स्थित होकर भी जलता नहीं वल्कि स्वयं भी अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है । इसके अतिरिक्त साधना ग्रन्थों में इस चक्र के जागृत होने पर साधक वचन रचना चातुर्य प्राप्त कर लेता है और उसकी जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती निवास करने लगती है ऐसा स्वीकार किया जाता है । ३१८ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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