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मारता आमलवदनवाल
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संकेत किया गया है, जिनकी व्याख्या के लिए स्वतन्त्र लेख की अपेक्षा होगी। चारों दलों के मिलन स्थल चक्र के मध्य स्थान (कणिका) में पृथिवी शक्ति का बोधक लँ बीज मन्त्र अवस्थित है। इसका तात्पर्य यह है कि इस चक्र के मूल में धारणा पृथिवी धारणा है, जिसके सिद्ध होने पर साधक को पृथिवी अथवा पार्थिव पदार्थों से कोई बाधा नहीं होती। पार्थिव पदार्थ उसकी गति में बाधक नहीं बनते, पृथिवी से उसे चोट आदि की आशंका नहीं रहती, पृथिवी उसकी मृत्यु का कारण नहीं बन सकती । गन्ध इसका गुण है। फलतः दिव्य गन्ध संवित् भी उसे सिद्ध हो जाती है अर्थात् उसे और उसकी इच्छा मात्र से उसके परिवेश में दिव्यगन्ध का आनन्दपूर्ण अनुभव सर्व साधारण को भी हो सकता है।
इस चक्र के लँ बीज का वाहन ऐरावत हाथी माना गया है। ब्रह्मा इस चक्र का देवता है तथा जी डाकिनी इसकी देव शक्ति मानी जाती है। इसमें ध्यान हेतु केन्द्र के रूप में चतुष्कोणाकृति यन्त्र की जाती है । इस चक्र का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रिय घ्राण (नासिका) और कर्मेन्द्रिय गुदा से स्वीकार किया जाता है अर्थात् ये दोनों इन्द्रियाँ इस चक्र की साधना के फलस्वरूप अपनी सम्पूर्ण शक्ति से कार्य करने लगती हैं, दिव्य गन्ध संवित् जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है, घ्राण इन्द्रिय की पूर्ण क्रियाशीलता का ही फल है। भौतिक शरीर की निर्मलता गुदा इन्द्रिय की पूर्ण क्रियाशीलता का परिणाम होता है । इसके अतिरिक्त साधक को मानव मात्र से श्रेष्ठता, अद्भुत वक्तृत्व शक्ति, समस्त विद्याओं और कवित्वशक्ति की प्राप्ति भी मूलाधार चक्र के जागृत होने के फलस्वरूप होती है। शरीर के पूर्ण निर्मल होने के फलस्वरूप पूर्ण आरोग्य
और चित्त में आनन्द की अनुभूति भी साधक को निरन्तर प्राप्त होती है। स्मरणीय है कि योग परम्परा में इस चक्र के जागरण को ही ब्रह्मग्रन्थि-भेदन भी कहते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र __ स्वाधिष्ठान चक्र की स्थिति योनि स्थान से कुछ ऊपर और नाभिस्थान के नीचे पेडू के पीछे अर्थात् मूलाधार और मणिपर चक्र के मध्य में स्वीकार की जाती है। यह स्थान जल का स्थान माना जाता है। शरीर में भुवः लोक की स्थिति यहीं स्वीकार की गयी है । प्राणायाम मन्त्र के द्वितीय अंश 'ओम् भुवः' का जप और अर्थ की भावना इस चक्र को जागृत करने के लिए ही की जाती है। इसके जागृत होने से इस चेतना केन्द्र के सभी ऊतक पूर्ण क्रियाशील हो जाते हैं। इस चक्र (चेतना केन्द्र) को षट्कोण (छह कोणों चाली आकृति का) और सिन्दूर वर्ण वाला माना गया है। इसके प्रत्येक दल (पंखुड़ी) पर क्रमशः बँ मैं मैं यँ ₹ और लँ बीज मन्त्र अंकित हैं, यह स्वीकार किया जाता है। ये सभी बीज इस चेतना केन्द्र (चक्र) की विविध किन्तु प्रमुख ज्ञान और क्रिया शक्ति के प्रतीक है। कणिका (चक्र के केन्द्र स्थल) में बीज माना जाता है । वॅ बीज जल तत्त्व का बीज है। इसलिए चक्र में धारणा को ही जल धारणा भी कहते हैं । इसके (जल धारणा के) सिद्ध होने पर साधक को जल से किसी प्रकार की बाधा नहीं हो पाती, न तो जल की शीतता साधक को कष्टकर होती है, न जल उसे गीला कर सकता है और न गला-सड़ा सकता है, न उसे उसमें डूबने से ही कोई हानि की सम्भावना रहती है, जल उसकी मृत्यु का भी कारण नहीं बन सकता । रस जल का प्रधान गुण है अतः जलधारणा सिद्ध होने पर अर्थात् स्वाधिष्ठान चक्र के जागृत होने पर साधक को दिव्य रस संवित भो सिद्ध हो जाता है, अर्थात् उसकी इच्छा मात्र से उसे दिव्य रसों के आस्वाद के आनन्द का अनुभव होता है। उसकी कृपा से सर्वसाधारण भी दिव्य रसों के आस्वाद का अनुभव कर सकते हैं। इस चक्र का तत्त्व बीज है, जल तत्त्व का वाहन मकर स्वीकार किया गया है। विष्णु इस
प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चक्र-साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३१७
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