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यह शरीर प्राणिमात्र के साथ निरन्तर रहता है । एक प्राणी मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में जाता है। उस समय अन्तराल गति में भी तैजस शरीर उसके साथ रहता है। कर्म-शरीर सव शरीरों का मूल है। उसके बाद दूसरा स्थान तैजस शरीर का है। यह सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित होता है, इसलिए चर्म-चक्षु से दृश्य नहीं होता। यह स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है। यह तप द्वारा उपलब्ध तैजस शरीर ही तेजोलेश्या है। इसे तेजोलब्धि भी कहा जाता है। स्वाभाविक तैजस पारीर सब प्राणियों में होता है । तपस्या से उपलब्ध होने वाला तैजस शरीर सबमें नहीं होता। वह तपस्या से उपलब्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि तपस्या से तैजस-शरीर की क्षमता बढ़ जाती है । स्वाभाविक तैजस शरीर स्थूल शरीर से बाहर नहीं निकलता। तपोजनित तैजस शरीर शरीर के बाहर निकल सकता है। उसमें अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है। उसके बाहर निकलने की प्रक्रिया का नाम तैजस समुद्घात है । जब वह किसी पर अनुग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद होता है । वह तपस्वी के दाएँ कन्धे से निकलता है। उसकी आकृति सौम्य होती है। वह लक्ष्य का हित साधन कर (राग आदि का उपशमन कर) मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है।
जब वह किसी का निग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण सिन्दुर जैसा लाल होता है। वह तपस्वी के बाएँ कन्धे से निकलता है। उसकी आकृति रौद्र होती है। वह लक्ष्य का विनाश, दाह कर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है।
अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को “शीत" और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को "उष्ण" कहा जाता है । शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है ।
तेजोलेश्या अनुपयोग काल में संक्षिप्त और उपयोग काल में विपुल हो जाती है । विपुल अवस्था में वर सर्य बिम्ब के समान दर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि मनुष्य उसे खुली आँखों से देख नहीं सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग करने वाला अपनी तैजस-शक्ति को बाहर निकालता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है।
तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता है। फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं- मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठ भाग । मन और शरीर के बीच सबसे बड़ा सम्बन्ध सेतु मस्तिष्क है । उससे तैजस शक्ति (प्राण शक्ति या विद्युत् शक्ति) निकलकर शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करती है । नाभि के पृष्ठ भाग में खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता है । अतः शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठ भाग-ये दोनों तेजोलेश्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन जाते हैं। यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। इसे हम नहीं देख पाते । इसके सहायक परमाणु-पुद्गल सूक्ष्म दृष्टि से देखे जा सकते हैं । ध्यान करने वालों को उनका यत्किचित् आभास होता रहता है।
तेजोलेश्या प्राणधारा है। हमारे शरीर में अनेक प्राणधाराएँ हैं। इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है। मन, शरीर और वाणी की अपनी प्राणधारा है। श्वास-प्रश्वास और जीवनी-शक्ति की भी स्वतन्त्र प्राणधाराएँ हैं। हमारे चैतन्य का तैजस शरीर के साथ योग होता है और प्राण-शक्ति बन जाती है। सभी प्राणधाराओं का मूल तैजस शरीर है । इन प्राणधाराओं के आधार पर शरीर की क्रियाओं और विद्युत् आकर्षण के सम्बन्ध का अध्ययन किया जा सकता है।
३०२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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