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कुण्डलिनोयोग : एक विश्लेषण
युवाचार्य महाप्रज्ञ
हमारे जानने का पहला या मूल स्रोत है-इन्द्रियाँ । ये हमारे शरीर में हैं, पृथक् नहीं हैं। हमने शरीर के कुछ ऐसे चुम्बकीय क्षेत्र बना लिये जिनके माध्यम से हम बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। वे पांच माध्यम हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं।
जो इस स्थल शरीर से परे है, वह इन्द्रियों का विषय नहीं है । वह इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। किन्तु हमारे शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनके विषय में चिन्तन और अनुभव करते-करते हम अपनी बुद्धि और चिद् शक्ति के द्वारा इन्द्रियों की सीमा से परे जाकर सूक्ष्मा शरीर की सीमा में प्रविष्ट हो. गये। उनमें एक तत्त्व है प्राण-विद्युत् । अग्निदीपन, पाचन, शरीर का सौष्ठव और लावण्य, ओज--येजितनी आग्नेय क्रियाएँ हैं, ये सारी सप्त धातुमय इस शरीर की क्रियाएँ नहीं हैं । फिर प्रश्न हुआ कि इन क्रियाओं का संचालक कौन है ? खोज हुई । ज्ञात हुआ कि इस स्थूल शरीर के भीतर तेज का एक शरीर
और है, वह है विद्युत् शरीर, तैजस शरीर । वह शरीर सूक्ष्म है। वही इस स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करता है। उस सूक्ष्म शरीर में से विद्युत् का प्रवाह आ रहा है और उस विद्युत्-प्रवाह से सब कुछ संचालित हो रहा है । उस सूक्ष्म शरीर को प्राण शरीर भी कहा जाता है। यह शरीर प्राण का विकिरण करता है और उसी प्राण-शक्ति से क्रियाशीलता आती है।
इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं। किन्तु यदि उनमें प्राण-शक्ति का प्रवाह न हो तो वे अपना कार्य नहीं कर सकतीं। मन का अपना काम है। किन्तु प्राण-शक्ति के योग के अभाव में वह भी कुछ नहीं कर सकता । स्वर यन्त्र अपना काम करता है, पर प्राण-शक्ति के अभाव में वह निष्क्रिय हो जाता है। हमारा रेस्पेरेटरी-सिस्टम भी प्राण-शक्ति के आधार पर चलता है। श्वासोच्छवास की क्रिया प्राण-शक्ति के बिना नहीं हो सकती।
श्वास, मन, इन्द्रियां, भाषा, आहार और विचार-ये सब प्राण-शक्ति के ऋणी हैं। इससे ही ये सब संचालित होते हैं, क्रियाशील होते हैं । प्राण शक्ति सक्ष्म शरीर से निःसृत है। जहाँ से प्राणशक्ति का प्रवाह आता है वह सुक्ष्म शरीर है-तैजस् शरीर।
कुण्डलिनीयोग : एक विश्लेषण : युवाचार्य महाज्ञः | ३७१.
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