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साध्वारत्न पुष्पवता भिनन्दन ग्रन्थ
व्याकरण से ही परिज्ञात होता है। ये शब्दों के दिलवाई। जैन न्याय और दर्शन का अध्ययन करने जो विविध रूप हैं उसके अन्दर जो मूल संज्ञा और हेतु कुछ साध्वियों के साथ उन्हें ब्यावर जैन गुरुधातु रहते हैं, उसके स्वरूप का निश्चय और उन कुल में भी रखा । लगभग एक वर्ष तक वहाँ रहकर शब्दों में प्रत्यय जोड़कर विभिन्न शब्दों के निर्माण उन्होंने न्याय आदि का अध्ययन किया। की प्रक्रिया भी व्याकरण से ही ज्ञात होती है। धातू पश्चात पुष्पवतीजी ने उदयपुर केन्द्र से साहित्य और प्रत्यय के द्वारा अर्थों का निश्चय भी व्याकरण रत्न की परीक्षा भी समुत्तीर्ण की । और जैन के द्वारा ही होता है। व्याकरण भाषा का अनुशासन सिद्धान्ताचार्य का अध्ययन किया। इस प्रकार राजकरता है । इसलिए सर्वप्रथम व्याकरण का अध्ययन स्थानी सतियों में इन दोनों साध्वियों ने सर्वप्रथम करवाया जाय और साथ ही साहित्य का भी । व्यवस्थित अध्ययन कर परीक्षाएं समुत्तीर्ण की। हमारा जो भूल आगम साहित्य है उन आगमों की सन १९४० में महासती पुष्पवतीजी के लघु भाषा अर्द्धमागधी है और उन आगमों का व्याख्या- भ्राता धन्नालाल ने नौ वर्ष के लधु वय में हमारे साहित्य प्रायः संस्कृत में है। इसलिए सर्वप्रथम पास दीक्षा ग्रहण की और उसकी दीक्षा के चार संस्कृत और प्राकृत का ज्ञान आवश्यक है। पल्लव- माह पश्चात गातेश्वरी तीजकँवर ने भी महासती ग्राही पाण्डित्य नहीं, मूलग्राही पाण्डित्य अपेक्षित श्री सोहनकुंवरजी के पास दीक्षा स्वीकार की। है । अतः आप इन्हें व्याकरण का अध्ययन करवाएँ। महासती पुष्पवतीजी के अनेक वर्षावास मेरे
मुझे यह लिखते हुए अपार हर्ष है कि विदुषी सान्निध्य में हुए हैं। मेरे से उन्होंने आगम और महासती सोहनकुँवरजी ने मेरे सुझाव को सुना ही टीका ग्रन्थों का अध्ययन किया है। मुझे यह लिखते नहीं, किंतु उसे मूर्त रूप देने के लिए वे कटिबद्ध हो हए प्रसन्नता है कि अध्ययन के साथ उसमें नम्रता गई। उन्होंने एक सुयोग्य पण्डित की व्यवस्था की है, सरलता है, स्वभाव में कोमलता है । कभी भी
संस्कृत व्याकरण का अध्ययन प्रारम्भ व निरर्थक वार्तालाप नहीं करती हैं। उसके जीवन करवाया।
में श्रद्धा और विवेक का अनूठा संगम है। वह वह युग था । जब राजस्थान में महिलाएँ चिन्तन-मनन स्वाध्याय और ध्यान में सदा लीन कम पढ़ती थीं। उनकी यह मान्यता थी कि एक रहती है । वह उदारचित्त, समन्वय-साधिका हैं। घर में दो कलम नहीं चलनी चाहिए। फिर स्थानक- मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ भाव उसमें वासी परम्परा तो क्रियानिष्ठ रही। उसका मूल आत्मसात् कर लिया है। आधार ही क्रिया थी। क्योंकि स्थानकवासी दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे प्रसंग पर मेरा परम्परा का उद्भव ही ज्ञान को लेकर नहीं अपितु हादिक आशीर्वाद है कि वह खूब अध्ययन करें, क्रिया को लेकर हआ था। इसलिए वे महापूरुष चिन्तन करें. आगमों का स्वाध्याय करें। जप और क्रियोद्धारक के रूप में विश्रत हुए। जब सन्त भी तप की साधना करें। खब सेवाभावी. विदवान व्याकरण के अध्ययन से कतराते थे। तो सतियों का शिष्याएँ बनें तथा भारत के विविध अंचलों में परिअध्ययन समाज को चौंकाने वाला था। कुछ सज्जनों भ्रमणकर अपने ओजस्वी. तेजस्वी मौलिक प्रवचनों ने तथा सन्त भगवन्तों ने भी इसका विरोध किया। से जन-जीवन को प्रेरणा प्रदान करें । गुरु और किन्तु विरोध के वातुल से महासतीजी घबराने गुरुणी के नाम को अधिकाधिक रोशन करें और वाली नहीं थी। वे वीरांगना थी। उन्होंने सभी को उनकी प्रतिभा दिन-दूनी और रात चौगुनी विकसित सटीक जवाब दिया । अध्ययन के पश्चात् शिष्याओं हो। को क्विस-कालेज, वाराणसी की सम्पूर्ण काव्य मध्यमा और सम्पूर्ण व्याकरण मध्यमा परीक्षाएँ
विकास की कहानो : गुरु की जुबानी | ५
w.jain