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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऊँचे-ऊँचे पदों पर नारी आसीन है। डाक्टर, सर्जन, वकील, पुलिस, न्यायाधीश आदि अनेकों पदों पर आसीन है। अनेकों विद्वानों ने नारी को गरिमामय माना है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है, "नारियों की अव्यवस्था में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं है । किसी एक पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना नितांत असम्भव है।" आगे और लिखते हैं "नारी उत्थान के लिए सचमुच ही कुछ करना चाहते हो तो केवल इतना करो कि उसे हर क्षेत्र में विकसित होने का अवसर दो, उसके लिए उसे उत्साहित करो और पूरी तत्परता से उसका सहयोग करो । अपनी भूलों का सुधार भर कर लो। नारी अपना पक्ष सम्भालने में सक्षम है।" मध्यकाल से थोड़े वर्षों पहले तक नारी की बड़ी उपेक्षा थी। उसे विदुषी नहीं बनने देते थे। सिर्फ घर का काम करवाने में ही इतिश्री समझ लेते थे।
इसके लिए विद्याभूषण ने लिखा है कि, "लोग यह सिद्धान्त पुरुषों में तो लागू करना चाहते हैं किन्तु स्त्रियों के प्रति एक दो व्यक्ति नहीं सारा का सारा समाज इस सिद्धान्त का उल्लंघन कर रहा है। यह एकांगी चिंतन कब तक चलेगा? मानवी चेतना, उसका विवेक इसे कब तक सहन कर सकेगा" ? मध्य काल में पर्दा-प्रथा बहुत थी, स्त्री के नख तक नहीं दिख सकते थे। उस समय स्त्रियों पर बहुत अत्याचार हो रहे थे । समय देखकर पर्दा-प्रथा लागू की थी। लेकिन बाद में भी वह ज्यों की त्यों बनी रही।
इसके लिए स्वामी राम ने अन्तर् वेदना के साथ लिखा, "पर्दे से यदि शील का रक्षण होता है तो फिर उसे पुरुष के लिए भी प्रयुक्त क्यों नहीं करते' ? नारी में बुद्धि पुरुष से भी ज्यादा होती है, मगर पुरुषों ने उसे बुद्ध समझ लिया । उसे कहीं आने-जाने की इजाजत नहीं थी। हर वक्त उसे चारदीवारी में बन्द रहना पड़ता था।
इसी से दुःखी होकर कार्लाइल ने लिखा है कि "जिन देवियों के थोड़े से अंश का अनुदान पाकर पुरुष सबल बना है उन्हें दुर्बल कहना, जो अपनी अजस्र अनुदान परम्परा के कारण देवी कहलाती हैं, उन्हें स्वावलम्बन के अयोग्य ठहराना बुद्धि का दिवालियापन नहीं तो और क्या है" ? पहले जमाने में पुत्रियों का जन्म होते ही मार डालते थे । ज्यादा पुत्रियों का होना अभिशाप समझा जाता था, लेकिन जो काम पुत्रियाँ करके दिखातीं वह काम पुत्र को करने में मुश्किल थी। नारी रत्न-कुक्षि है, यह बात कोईकोई ही समझ पाता था। सबको समझना नामुमकिन था । अतः पुत्र से भी पुत्री को ज्यादा महत्त्व देते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा, "भारतवर्ष का धर्म उसके पुत्रों से नहीं, सुपुत्रियों के प्रताप से हो स्थिर है । भारतीय देवियों ने यदि अपना धर्म छोड़ दिया होता तो देश कब का नष्ट हो चुका होता"।
___ अतः हम कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जैनागमों और अन्य साहित्य में नारी का उच्च स्थान है। दान, शील, तप, भाव, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अस्तेय, तप वगैरह में, देश, राष्ट्र, और धार्मिक क्षेत्र में गौरवमय है।
३०० | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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