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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
केवल मानव-जाति की विशिष्टताएँ हैं । ऐसे 'मानव' नामधारी प्राणी को जिसने जन्म दिया है, उस माता या जननी के गौरव और महत्व का कौन मूल्यांकन कर सकता है ? इसीलिए माता ही, इस वसुन्धरा धरणी का सबसे अनमोल रत्न है । एक प्रकार से वह धरती माता का ही लघुकाय 'विग्रह' (या प्रतिकृति) है। मानव-जाति को जन्म देने वाली जननी की इसीलिए बारम्बार स्तुति की गई है। सूक्तियों में 'जननी और जन्म-भूमि को स्वर्ग से भी अधिक गरिमामयी' कहा गया है । मानवी अस्तित्व की आदि कारण ही इस भांति 'नारी' है।
नारी की करुणा और उसकी परोपकारमयी वृत्ति की कोई सीमाएँ नहीं हैं । उसने अपने रक्त और अपनी मज्जा से 'मानव' को आकार या उसका भौतिक अस्तित्व प्रदान किया है। उसे अपनी कोख में उसने ही धारण किया और उसने उसे अपने हृदय के रक्त से पोषित करने तथा प्राण धारण करने योग्य बनाने एवं उसे जन्म देने में, अवर्णनीय आत्म-त्याग एवं तप का परिचय दिया है। मानव के जीवन के पहले पल से. बरसों तक नारी ने ही उसे अपने कलेजे का दूध पिलाकर बड़ा और बलशाली बनाया है। जब मानव अपने लघु-आकृति वाले 'शिशु-रूप' में होता है, तो वह अपने आप को कितना अधिक असहाय और निरुपाय अवस्था में पाता है। नारी अपने मातृ रूप में उसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाती है और उसे 'सामाजिक प्राणी' कहलाने योग्य बनाती है। वही उसकी सर्वप्रथम भाषा गुरु है क्योंकि जिस बोली में बोलना या जिस बोली को समझना वह पहले-पहल सीखता है उसका नाम ही मातृ-भाषा है । संसार के हर मनुष्य की कोई न कोई 'मातृ भाषा' है, जो कि उसने अपनी 'माँ' से सीखी है। भाषा या वाणी मानव की श्रेष्ठता का पहला लक्ष्य है, जो सारी जंगम सृष्टि में, केवल उसे ही उपलब्ध है । पर यह वाणी का वरदान केवल माँ से ही प्राप्त है।
मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी इसलिए ही है क्योंकि उसने अपनी विकास यात्रा में, सभ्यता और संस्कृति की मंजिलें पार कर ली हैं। सभ्यता का पहला पाठ, माँ या नारी ही पढ़ाती है। आधुनिक बाल-विज्ञान के विशेषज्ञों-विशेषतया मदाम माण्टेसरी का मत है कि शिशु की २१ वर्ष से ५ वर्ष तक की आयु उसकी समग्र शिक्षा-दीक्षा के लिए सर्वाधिक महत्व रखती है। इस कालान्तर में शिशु की मानसिक अवस्था सुक्ष्म से सूक्ष्म इंगितों एवं संस्कारों को ग्रहण करने की क्षमता रखती है। अतः जिन बालकों की माताएँ अपने शिशओं की देख-रेख और शिक्षा-दीक्षा की ओर सर्वाधिक ध्यान देती हैं, वे ही आगे चलकर महान और लोकनायक बनते हैं, क्योंकि प्रत्येक शिशु अपने इन प्रारम्भिक वर्षों में, अपनी माँ को ही गुरु रूप में पाता है और मानता है। वह अपनी पूरी आस्था के साथ के साथ माँ पर ही निर्भर करता है । गुरु भक्ति का प्रथम पाठ इस भाँति शिशु अपनी मातृ-गुरु से ही पढ़ता है।
भारत भूमि के गौरव और उसकी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा का काम इस भाँति नारी या माता के कन्धों पर ही सदा-सर्वदा रहा है। सच पूछो तो सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में शिक्षा-दीक्षा का कार्य, पिता या पुरुष, बहुत ही कम कर पाता है । जब घर पर बालक की शिक्षा-दीक्षा की वह अवस्था सम्पूर्ण हो जाती है, जिसमें वह माँ पर आश्रित रहता है तब उसे 'गुरु-कूल' में भेजने और वहाँ उच्चतर एवं उच्चतम सांस्कृतिक योग्यता प्राप्त करने के कार्य को सम्पन्न करने की, हमारे देश में हजारों वर्षों से परम्परा चली आई है । आज भी देश में जहाँ-तहाँ 'गुरु-कुल' पाये जाते हैं । आधुनिक प्रणाली को ज्ञानविज्ञान की शिक्षा 'गुरुकुल' प्रणाली की पूरक तो हो सकती है किन्तु पर्याय नहीं। सारतः नारी या माता ही मानव अथवा पुरुष को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने की प्रमुख भूमिका निभाती है। अतः उसका
२८२ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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