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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
ऐसे संकटकाल में मुनिराज विष्णुकुमार से प्रार्थना की गई । वे वैक्रिय शक्ति सम्पन्न थे । संघ पर अनाहूत आगत संकट का मोचन कीजिए, ऐसी प्रार्थना की गई। तप आराधना में लीन मुनिराज ने जब यह ज्ञात किया तो तुरन्त मुनिजनों की रक्षार्थ अपनी स्वीकृति दे दी और चलने के लिए सन्नद्ध हो गए । नगर में आकर वे अपने भाई पद्मराज से अनर्थ से मुक्त होने के लिए प्रार्थना करने लगे । यहां की परम्परा के 'अनुसार यहां सदैव संतों का सम्मान होता आया है किन्तु अपमान कर इस महाकुकृत्य से अपने को पृथक रखिए ।
महाराजा पद्मराज वचनबद्ध होने से अपनी विवशता को व्यक्त करने लगा । विष्णुकुमार जो बलि के पास जाकर मुनि संघ के लिए स्थान की याचना करने लगे । बलि ने उन्हें ढाई पग दिए और कहा कि इसमें ठहर जाइए। इस पर मुनि को आक्रोश पैदा हुआ और उन्होंने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया । एक पैर सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर तीसरा बीच में लटकने लगा । इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर लोग स्तब्ध रह गए। बलि ने क्षमा मांगी और इस प्रकार आगत संकट टल गया। उधर लोगों ने मुनिजनों पर संकट आता देखकर अन्न-जल त्याग कर दिया था । जब मुनिजन लौटकर नहीं आए तो उन सबका आहार लेना सम्भव नहीं हुआ । अन्त में मुनियों को मुक्त किया गया और वे सात सौ घरों में आहार हेतु चले गए। साथ ही शेष घरों में श्रमणों का स्मरण कर प्रतीक बनाकर गृहपतियों ने भोजन किया। अतः इसी दिन से रक्षाबन्धन पर दीवालों पर मनुष्याकार चित्र बनाकर राखी बांधने की प्रथा चल पड़ी जिसका आज भी उत्तर भारत में 'सौन' शब्द से इस प्रथा का प्रतीकार्थ लिया जाता है । यहाँ 'सौन' शब्द श्रमण का अपभ्रंश शब्द है । इस मान्यता की परिपुष्टि महापण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री स्वरचित 'जैनधर्म' नामक कृति में करते हैं ।
मौन एकादशी
मौन का अर्थ है-वाणी का, वचन का निग्रह अर्थात् न बोलना । मानव के पास तीन शक्तियाँ हैं- मन की शक्ति, वचन की शक्ति और शरीर की शक्ति । शरीर की शक्ति से वचन की शक्ति अधिक है और मन की शक्ति वचन की शक्ति से भी अनेक गुनी प्रचण्ड है । आज का वैज्ञानिक मौन की महत्ता स्वीकारता है । उसका मानना है कि बोलने से मस्तिष्कीय शक्ति अधिक खर्च होती है जिससे वह अविलम्ब थक-चुक जाता है । अतएव मनुष्य को कम बोलना चाहिए। मौनव्रती बौद्धिक काम करने में, ध्यान आदि अधिक समर्थ होता है । व्यावहारिक रूप से भी वाचालता से अनेक हानियाँ होती हैं । अध्यात्म में मौन का अपना महत्व है । मौन तो मुनि का लक्षण है । साधक बिना प्रयोजन वाणी की शक्ति को व्यर्थ व्यय नहीं करता । तन का मौन है—अधिक शारीरिक प्रवृत्ति न करना, स्थिर आसन रखना । मन का मौन है संकल्प-विकल्पों का त्याग, उनमें मन को न भरमाना । लेकिन मन है जा कि रिक्त नहीं रह सकता । कुछ न कुछ उछल-कूद करता ही रहता है। इसके लिए मन को शुभ विचारों से, प्रभु के गुणों के स्मरण से ओतप्रोत कर देना चाहिए ।
एकादशी का शाब्दिक अर्थ है ग्यारह की संख्या । आपके पास भी मन, वचन, काय के ग्यारह योग हैं। चार मन के, चार वचन के और तीन काया के ( औदारिक, तेजस् और कार्मण ) । इन ग्यारह का संयमन, नियमन और निग्रह ही मौन की पूर्ण साधना है । यही मौन एकादशी का
जैन पर्व और उसकी सामाजिक उपयोगिता: कुँवर परितोष प्रचंडिया | २०६
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