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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
परम्परागत उसी प्रकार जनता दीप जला-जलाकर उस परम ज्ञान की वंदना-उपासना करती है और प्रेरणा प्राप्त करती है।
हरिवंश पुराण के अनुसार भगवान् भव्य जीवों को उपदेश देते हैं और पावानगरी में पधारते हैं। यहां एक मनोहर उद्यान में चतुर्थ काल की समाप्ति में तीन वर्ष आढ़े आठ मास शेष रह गए थे, कार्तिक अमावस्या के प्रातः योग का निरोध करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त हुए। देवताओं ने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाए। उस समय उन दीपकों के प्रकाश से सारा क्षेत्र आलोकित हो उठा । उसी समय से भक्तगण जिनेश्वर की पूजा करने के लिए प्रति वर्ष उनके निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में दीपावलि मानते हैं।
___ महामनीषी पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के अनुसार, दीपावलि के पूजन की जो पद्धति है, उससे भी समस्या पर प्रकाश पड़ता है। दीपावलि के दिन क्यों लक्ष्मी पूजन होता है इसका सन्तोषजनक समाधान नहीं मिलता। दूसरी ओर जिस समय भगवान महावीर का निर्वाण हआ उसी समय उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई । गौतम जाति के ब्राह्मण थे। मुक्ति और ज्ञान को जिनधर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी माना है और प्रायः मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मी के नाम से ही शास्त्रों में उनका उल्लेख किया गया है । अतः सम्भव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मी के पूजन की प्रथा ने धीरे-धीरे जन समुदाय में बाह्य लक्ष्मी के पूजन का रूप धारण कर लिया हो। बाह्यदृष्टिप्रधान मनुष्य समाज में ऐसा प्रायः देखा जाता है । लक्ष्मी पूजन के समय मिट्टी का घरौंदा और खेल-खिलौने भी रखे जाते हैं। दरअसल ये घरौंदा और खेल-खिलौने भगवान् महावीर और उनके शिष्य गौतम गणधर की उपदेश सभा की यादगार में हैं और चुंकि उनका उपदेश सुनने के लिए मनुष्य, पशु, पक्षी सभी जाते थे अतः उनकी यादगार में उनकी मूर्तियाँ-खिलौने रखते हैं।
मन्दिरमार्गी जिनधर्मी प्रातः लाड़ चढ़ाते हैं जो भगवान् के समवशरण का ही प्रतीक है। प्रसन्नता होने के कारण समाजी परस्पर में मिष्ठान भेंट करते हैं, खाते हैं और खिलाते हैं। सलूनो अर्थात् रक्षा बन्धन
__ यह पर्व आज पूरे देश में बड़े मनोयोग के साथ मयाया जाता है । ब्राह्मण जन यजमान के हाथों में रखी बांधते समय निम्न श्लोक का वाचन करते हैं। यथा
येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबली।
तेन स्वामपि बध्नामि रक्षे! मा चल मा चल ।।. अर्थात् जिस राखी से दानवों का इन्द्र महाबली बलिराजा बांधा गया उससे मैं तुम्हें वांधता है, अडिग और अडोल होकर मेरी रक्षा करो । इतने भर से इस त्यौहार के विषय में कोई ठोस प्रमाण अथवा विवरण प्राप्त नहीं होता । वामनावतार के प्रसंग में बलिराजा की कहानी अवश्य प्रचलित है किन्तु इससे रक्षाबन्धन के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी अथवा प्रबोध नहीं होता। जैन-साहित्य में इस पर्व के विषय में अवश्य चर्चा मिलती है। कहते हैं कि जैन साधुओं से घृणा और द्वेष रखने वाले वलि को महाराजा पद्म
दिवसीय राज्याधिकार प्राप्त हो गया था। आचार्य अकम्पन संयोगवश उधर से होकर निकल रहे थे, उनके साथ सात सौ शिष्यों का विशाल कुल भी था । बलि को प्रतिशोध लेने का सुयोग प्राप्त हो गया। उसने पूरे मुनिसंघ को बन्दीगृह में डाल दिया और उनका नरमेध-यज्ञ में बलि देने का निश्चय करने लगा।
२०८ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक-सम्पदा
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