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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ||
रचित यशोधरचरित की सूचना दी है। हरिभद्र के प्राकृत ग्रन्थ 'समराइच्चकहा' में भी यशोधर की कथा आयी है।
इसी तरह वादीराज, वासवसेन, वत्सराज, सकलकीर्ति, सोमर्कीति, श्रुतसागर, पूर्णदेव, विजयकीर्ति, ज्ञानकीति आदि कवियों ने भी यशोधर चरित्र की रचना की है। चूंकि कथा का प्रारम्भ स्वाभाविक ढंग से होता है किन्तु कवि का मुख्य उद्देश्य यशोधर के पूर्व-भवों के दुःखों को, जो उसे आटे के मुर्गे की बलि के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है, प्रस्तुत करना था। कवि ने जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए वैदिकी-हिंसा का निरसन एवं अन्य भारतीय दर्शनों की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है।।
जैन धर्म एवं दर्शन सोमदेव जैन थे, अतः उन्होंने यशस्तिलक में जैनधर्म एवं दर्शन की विशद् व्याख्या की और उसे सबसे ऊंचा स्थान दिया है । जैन धर्म विरक्ति-मूलक सिद्धान्तों पर आधारित है । इसीलिए ग्रन्थ के द्वितीय आश्वास में राजा यशोवर्म को अपने मस्तक के श्वेत बाल को देखने मात्र से ही संसार, शरीर, व भोगों आदि से विरक्ति हो गई । कवि ने इसी प्रसंग में जैन धर्म की बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन कर मोक्षप्राप्ति का साधन बताया है। जैन धर्म के मूलभूत 'अहिंसा' नामक सिद्धांत का वर्णन वैदिकी-हिंसा के निरसन के प्रसंग में किया है।
धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कवि कहता है कि जिन कार्यों के अनुष्ठान से मनुष्य को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे धर्म कहा जाता है । इस धर्म का स्वरूप प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप है। सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र का पालन प्रवृत्ति तथा मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय व योग से बचनानिवृत्ति कहलाता है। सच्चा धर्म वही है, जिसमें अधर्म (हिंसा आदि-मिथ्यात्व आदि) नहीं है। सच्चा सुख वही है, जिसमें नरकादि का दुःख नहीं है । सम्यक्ज्ञान वही है, जिसमें अज्ञान नहीं है। तथा सच्ची गति वही है, जहाँ से संसार में पुनरागमन नहीं होता।
आत्मा के स्वरूप को बताते हए कवि कहता है कि-ज्ञाता, द्रष्टा, महान, सक्ष्म, कर्ता, भोक्ता स्वशरीर-प्रमाण तथा स्वभाव से ऊपर गमन करने वाले को आत्मा कहा गया है।
मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कवि कहता है कि राग-द्वेष आदि विकारों का क्षय करके जीव का आत्म-स्वरूप को प्राप्त करना ही मोक्ष कहा गया है सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण (मार्ग) है । जीव, अजीव आदि पदार्थों के यथार्थ श्रद्धान को सम्यक्दर्शन; अज्ञान संदेह व भ्रांति से रहित ज्ञान को सम्यज्ञान, तथा ज्ञानावरणादिकर्म बन्ध के कारण (मन, वचन व काय) तथा कषाय रूप पाप क्रियाओं के त्याग को सम्यक्चारित्र कहा गया है ।'
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1. जैन, गोकुलचन्द्र-यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन १० 50-53 2. शास्त्री, सुन्दरलाल-यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यं (दीपिका) पूर्वाद्ध, पृ० 141 3. वही, 5/5, 6/182
4. वही, 7/22/299 5. वहीं, 6/76, 77/59 6. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य (दीपिका) 6/116/207 7. वही, 5/7,8,9/183
सोमदेवसूरिकृत-यशस्तिलक चम्पू में प्रतिपादित दार्शनिक मतों की समीक्षा : जिनेन्द्रकुमार जैन | १८३
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