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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
सोमदेवसूरिकृत-यशस्तिलक चम्पू
प्रतिपादित दार्शनिक मतों की समीक्षा
-जिनेन्द्र कुमार जैन भारतीय साहित्य के मध्ययुग में पुराण, कथा, चरित, गद्य, पद्य, नाटक, मुक्तक एवं गद्य-पद्य मिश्रित (चम्पूकाव्य) आदि सभी विधाओं में साहित्य-रचना की गई है । इसलिए यह युग साहित्य निर्माण की दृष्टि से स्वर्णयुग माना गया है। इस युग में साहित्य-सृजन की धारा का प्रवाह मुख्य रूप से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषाओं में मिलता है। जैनाचार्यों ने प्राकृत एवं अपभ्र संस्कत भाषा में भी विविध विधाओं में जैन काव्य ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें जीवन के विभिन्न अंगों को प्रतिपादित करते हुए तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शनिक सामग्री को प्रस्तुत किया गया है ।
चम्पूसाहित्य की ओर दृष्टि डालने पर सर्वप्रथम १०वीं शताब्दी के त्रिविक्रमभट्ट (६१५) की कृति 'नलचम्पू' एवं 'मदालसाचम्पू' प्राप्त होती है। और इसी समय से संस्कृत भाषा में जैन चम्पूसाहित्य का श्रीगणेश हुआ, ऐसा माना जाता है। इसके बाद ६५६ ई० में सोमदेवसूरिकृत 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य प्राप्त होता है, जो संस्कृत साहित्य की एक अप्रतिम रचना है। किन्तु इस शताब्दी के बाद संस्कृत साहित्य के जैन चम्पू काव्यों में बाढ़ सी आ गई। जिनमें जीवन्धर, गुरुदेव, दयोदय, महावीर, तीर्थंकर, वर्धमान, पुण्यास्रव, भारत, भरतेश्वराभ्युदय, तथा जैनाचार्यविजया आदि प्रमुख चम्पूकाव्य हैं।
विभिन्न युगों की धार्मिक एवं दार्शनिक विचारधाराओं को साहित्यिक स्वरूप देने की प्रवृत्ति मध्ययुग के कवियों में अधिक देखने को मिलती है। इस दृष्टि से १०वीं शताब्दी में लिखा गया सोमदेवसूरिकृत 'यशस्तिलक चम्पू' महाकाव्य विशेष महत्व का है । प्रस्तुत निबंध में ग्रंथ में प्रतिपादित विभिन्न दार्शनिक मतों की समीक्षा को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है।
यशोधर का जीवन चरित जैन लेखकों में प्रिय रहा है, इसीलिए सोमदेवसूरि की तरह अपभ्रंश में पुष्पदन्त एवं रइधू आदि कवियों ने यशोधर के जीवन चरित को चित्रित करने के लिए 'जसहरचरिर' नामक काव्य का प्रणयन किया है। इसी प्रकार उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमाला कहा' में प्रभंजन द्वारा
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1. डा. देवेन्द्रकुमार जैन, अपभ्रंशभाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० 257 १८२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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