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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
लेख प्रकाशित किये थे, उनका संग्रह डबल्यू० शूबिंग क्लाइने श्रिफ्टेन (लघु निबन्ध, १६७७ ) के नाम से प्रकाशित किया गया । "
लुडविग आल्सडोर्फ (१९०४ - १९७८) जर्मनी के एक बहुश्रुत प्रतिभाशाली जैन विद्वान् हो गये हैं । आल्सडोर्फ लायमान के सम्पर्क में आये और याकोबी से उन्होंने जैन विद्या के अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त की । शूबिंग को वे अपना गुरु मानते थे । जब इन पंक्तियों के लेखक ने हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में उनके कक्ष में प्रवेश किया तो देखा कि शूब्रिंग का एक सुन्दर फोटो उनके कक्ष की शोभा में वृद्धि कर रहा है ।
१९५० में शूबिंग के निधन होने के पश्चात् उनके स्थान पर आल्सडोर्फ को नियुक्त किया गया । आल्सडोर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के अध्यापक रह चुके थे अतएव भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से उनका सुपरिचित होना स्वाभाविक था । इलाहाबाद में रहते-रहते उन्होंने एक गुरुजी से संस्कृत का अध्ययन किया व्याकरण की सहायता के बिना ही । आल्सडोर्फ का ज्ञान अगाध था, उनसे किसी भी विषय की चर्चा चलाइये, आपको फौरन जवाब मिलेगा। एक बार मैं उनसे साक्षात्कार करने के लिए हम्बुर्ग विश्वविद्यालय में गया । संयोग की बात उस दिन उनका जन्म दिन मनाया जा रहा था । विभाग के अध्यापक और कुछ छात्र आयोजन में उपस्थित थे । आल्सडोर्फ धारा प्रवाह बोलते चले जा रहे थे और श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होकर सुन रहे थे । हास्य एवं व्यंगमय उनकी उक्तियाँ उनकी प्रतिभा की द्योतक जान पड़ रही थीं। अपनी भारत यात्राओं के सम्बन्ध में बहुत से चुटकुले उन्होंने सुनाये । भारत के पण्डितगण जब उन्हें 'अनार्य' समझकर उनके मंदिर प्रवेश पर रोक लगाते तो वे झट से संस्कृत का कोई श्लोक सुनाकर उन्हें आश्चर्य में डाल देते और फिर तो मन्दिर के द्वार स्वयं खुल जाते । जैन पाण्डुलिपियों की खोज में उन्होंने खम्भात, जैसलमेर और पाटण आदि की यात्रायें की थीं और जब उन्होंने इन भाण्डागारों में दुर्लभ ताड़पत्रीय हस्तलिखित प्रतियों के दर्शन किये तो वे आश्वर्य के सागर में डूब गये । अपनी यात्रा के इस रोचक विवरण को उन्होंने 'शूविंग - अभिनन्दन ग्रन्थ' में 'प्राचीन जैन भण्डारों पर नया प्रकाश' नाम से प्रकाशित किया जो हाम्बुर्ग की 'प्राचीन एवं अर्वाचीन भारतीय अध्ययन' नामक पत्रिका में (१९५१) प्रकाशित हुआ है। पश्चिम के विद्वानों को यह जानकर ताज्जुब हुआ कि मुनि पुण्यविजय जी महाराज ने कितने परिश्रम से इतनी अधिक संख्या में मूल्यवान पाण्डुलिपियों को सुरक्षित बनाया है ।
आल्सडोर्फ के लिए प्राच्य विद्या का क्षेत्र सीमित नहीं था । उनका अध्ययन विस्तृत था जिसमें जैन, बौद्ध, वेद, अशोकीय शिलालेख, मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ, भारतीय साहित्य, भारतीय कला तथा आधुनिक भारतीय इतिहास आदि का समावेश होता था । भाषा विज्ञान सम्बन्धी उनकी पकड़ बहुत गहरी थी जिससे वे एक समर्थ आलोचक बन सके थे । क्रिटिकल पालि डिक्शनरी के वे प्रमुख
1. प्रोफेसर शूबिंग के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये देखिये कलकत्ता से प्रकाशित होने वाला 'जैन जर्नल', का शूविंग स्पेशल अक (जनवरी, १९७०) । इस अंक में 'इण्डो एशियन कल्चर', नई दिल्ली के भूतपूर्व सम्पादक डॉक्टर अमूल्यचन्द्र सेन का एक महत्त्वपूर्ण लेख है, जो शूलिंग से जैनधर्म का अध्ययन करने के लिए १९३३ में हम्बुर्ग गये थे ।
अनुसन्धान की कार्य-प्रणाली विदेशी जैन विद्वानों के सन्दर्भ में : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन | १७६