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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्राकृत साहित्य का अध्ययन कर भाषा-विज्ञान सम्बन्धी उन्होंने अनेक प्रश्न उपस्थित किये । औपपातिक सूत्र को अपनी शोध का विषय बनाकर उसका आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित (१८८२) किया। दशवैकालिक सूत्र और उसकी नियुक्ति का जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया। लेकिन आवश्यक सूत्र उन्हें सर्वप्रिय था । आवश्यक सूत्र की टीकाओं में उल्लिखित कथाओं को लेकर १८९७ में उन्होंने 'आवश्यक एर्सेलुंगेन' (आवश्यक कथायें) प्रकाशित किया, लेकिन इसके केवल चार फर्मे ही छप सके। अपने अध्ययन को आवश्यक सूत्र पर उन्होंने विशेष रूप से केन्द्रित किया जिसके परिणामस्वरूप 'यूबेरजिस्त युबेर दी आवश्यक लितरातूर' (Ubersicht uber die Avasyaka Literatur = आवश्यक साहित्य का सर्वेक्षण) जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की गई । सम्भवतः वे इसे अपने जीवनकाल में समाप्त नहीं कर सके । आगे चलकर हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शूबिंग द्वारा सम्पादित होकर, १९३४ में इसका प्रकाशन हुआ। इसके अतिरिक्त, पादलिप्तसूरिकृत तरंगवइकहा का 'दी नोने' (Die Nonne) शीर्षक के अन्तर्गत लायमान ने जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया (१६२१)। इस रचना का समय ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी माना गया है। विशेषावश्यक भाष्य का अध्ययन करते समय जो विभिन्न प्रतियों के आधार से उ पाठान्तरों का संग्रह किया, उससे पता चला कि किसी पाठक ने इस ग्रंथ के सामान्यभूत के प्रयोगों को बदलकर उनके स्थान में वर्तमानकालिक निश्चयार्थ के प्रयोग बना दिये हैं।
___ वाल्टर शूबिंग (१८८१-१९६६) जैन आगम साहित्य के प्रकाण्ड पंडित हो गये हैं। नौरवे के सुप्रसिद्ध विद्वान् और नौरवेजियन भाषा में वसुदेव हिडि के भाषान्तरकार (ओसलो से १९४६ में प्रकाशित) स्टेन कोनो के स्वदेश लौट जाने पर, हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग के डाइरैक्टर के पद पर प्रोफेसर शूबिंग को नियुक्त किया गया। जैन आगम ग्रन्थों में उनका ध्यान छेदस्त्रों की ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने इस साहित्य का मूल्यांकन करते हुए अपनी टिप्पणियों के साथ कल्प, निशीथ और व्यवहार छेदसत्रों का सम्पादन किया। महानिशीथ सूत्र पर इन्होंने शोधकार्य किया, अपनी प्रस्तावना के साथ उसे १६१८ में प्रकाशित किया (बेलजियम के विद्वान् जोसेफ, द ल्यू (Deleu) के साथ मिलकर १६३३ में, और एफ० आर० हाम (Hamm) के साथ मिलकर १९५१ में प्रकाशित)। आचारांग सूत्र की प्राचीनता की ओर उनका ध्यान गया, इस सूत्र का उन्होंने संपादन किया तथा आचारांग और सूत्रकृतांग के आधार से वोर्तेस महावीरस' (Worte Mahaviras == महावीर के वाक्य, १९२६ में प्रकाशित) प्रकाशित किया। उन्होंने समस्त आगम ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया जिसके परिणामस्वरूप उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति 'द लेहरे डेर जैनाज़' (Die Lehre der Jainas = जैनों के सिद्धान्त, १९३५ में प्रकाशित) प्रकाशित हुई। उनकी यह कृति इतनी महत्त्वपूर्ण समझी गई कि १९६२ में उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने की आवश्यकता हुई।
जर्मन परम्परा के अनुसार, किसी विद्वान् व्यक्ति के निधन के पश्चात् उसकी संक्षिप्त जीवनी और उसके लेखन कार्यों का लेखा-जोखा प्रकाशित किया जाता है । लेकिन महामना शूब्रिग यह कह गये थे कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके सम्बन्ध में कुछ न लिखा जाये । हाँ, उन्होंने जो समय-समय पर विद्वत्तापूर्ण
1. आल्सडोर्फ, 'द वसुदेव हिंडि, ए स्पेसीमैन ऑव आर्किक जैन महाराष्ट्री', बुलेटिन ऑव स्कूल ऑव ओरिण्टियेल
एण्ड अफ्रीकन स्टडीज़, 1936, पृ० 321 फुटनोट ।
१७८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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