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साध्वीरत्न पुष्यवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि प्रायश्चित्त आचार्य के समक्ष लिया जाता है पर प्रतिक्रमण में आचार्य की आवश्यकता नहीं होती। उसे साधक स्वयं प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल कर सकता है । आवश्यकों में उसे स्थान देकर आचार्यों ने उसकी महत्ता को प्रदर्शित किया है। इसमें साधक भतकाल में लगे हए दोषों की आलोचना करता है, वर्तमान काल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचता है और प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को रोकता है।
___ अपराध छोटा होने पर भी प्रतिक्रमण किया जाता है। भावपाहुड (७८) में ऐसे छोटे अपराधों का उल्लेख किया है जैसे-छहों इन्द्रियाँ तथा वचनादिक का दुष्प्रयोग, अपना हाथ-पैर आचार्य को लग जाना, व्रत समिति आदि में दोष आ जाना, पैशुन्य तथा कलह करना, वैय्यावृत्य-स्वाध्यायादि में प्रमाद यतन करना आदि ।
पडिक्कमणवस्सय में भी एक लम्बी लिस्ट दो है जिससे साधक-मुनि को बचना चाहिएस्थूल-सूक्ष्म हिंसा, गमन दोष, आहार दोष, शल्य, मन-वचन-काय दोष, कषाय, मद, अतिचार, समितिगुप्ति-दोष, सत्रह प्रकार का असंयम, १८ प्रकार का अब्रह्म, २० असमाधिस्थान, २१ शबलदोष, ३३ आसातना आदि ।
___यह प्रतिक्रमण व्रत रहित स्थिति में भी आवश्यक बताया है । यह शायद इसलिए कि अवती साधक का भी झुकाव व्रत की ओर रहता हो है। चारित्रमोहनीय का विशिष्ट क्षयोपशम न होने से व्रत ग्रहण करने में वह कमजोरी महसूस करता है। पर व्रत धारण करने की शुभ प्रतीक्षा तो वह करता ही है। इससे व्रतधारियों के प्रति सम्मान का भाव बढ़ता है तथा व्रत-पालन की दिशा में कदम भी आगे आता है।
सामान्यरूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-द्रव्यप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । उपयोगरहित सम्यक्दृष्टि का प्रतिक्रमण द्रव्यप्रतिक्रमण है। मुमुक्षु के लिए भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है। कर्मों की निर्जरा रूप वास्तविक फल भावप्रतिक्रमण से ही होता है। वर्तमान में लगे दोषों : करना और भविष्य में लगने वाले दोषों को न होने देने के लिए सावधान रहना प्रतिक्रमण का मुख्य उद्देश्य है।
पंचाशक (१७ गाथा० ६-४०) में दस कल्पों का वर्णन मिलता है जिनमें प्रतिक्रमण भी है । कल्प का तात्पर्य है साधुओं का अनुष्ठान विशेष अथवा आचार 18 ३. तदुमय
कुछ दोष आलोचना मात्र से शुद्ध होते हैं, कुछ प्रतिक्रमण से तथा कुछ दोनों से शुद्ध होते हैं, यह तदुभय है। जैसे एकेन्द्रिय जीवों का संस्पर्श, दुःस्वप्न देखना, केश लुंचन, नखच्छेद, स्वप्न दोष, इन्द्रिय का अतिचार, रात्रिभोजन आदि ।
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17. सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग । 18. जैन बोल संग्रह, भाग 3, पृ० 240; मूलाचार (गाथा 909); पचाशक, 17, गाथा 6-40 19. अनगार धर्मामृत, 7.53 १३६ / चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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