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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रायश्चित्त का यह सारा वर्गीकरण कदाचित् व्यक्ति के परिणाम और उसकी मनोवृत्ति पर आधारित रहे हैं । उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने पर यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो सकता है। आचार्यों ने अपराधों की संख्या को सीमित करने की अपेक्षा प्रायश्चित्त को सीमित करके उसे दस भेदों में वर्गीकृत कर दिया है जिनके आधार पर साधक अप्रशस्त भावों से मुक्त होकर प्रशस्त भावों में स्वयं को प्रतिष्ठित कर लेता है। १. आलोचना
निष्कपट भाव से प्रसन्नचित्त होकर आचार्य के समक्ष आत्म-दोषों को अभिव्यक्त करना आलोचना है ।" आलोचना करके, साधक पुनः पूर्वस्थिति में पहुँच जाता है। सच्चा आलोचक वही हो सकता है जो जाति, कुल, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षांति, दांति, निष्कपटता और अपश्चात्तापता गुणों से आभूषित हो । इसी तरह आलोचना ऐसे साधुओं के समक्ष की जाती है जो बहुश्रुत हों, आचार्य या उपाध्याय हों तया आठ गुणों से संयुक्त हों-आचारवान्, आधारवान (अतिचारों को समझने वाला), व्यवहारवान्, अपव्रीडकर (आलोचक साधु की शर्म को दूर करने वाला), प्रकुर्वक (अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ), अपरिस्रावी (आलोचक के दोषों को प्रकट न करने वाला), निर्णायक (असमर्थ साधु को क्रमिक प्रायश्चित्त देने वाला), और अपायदर्शी (परलोक आदि का भय दिखाने वाला)
आलोचना करने वाला साधु यदि यथार्थ साधुत्व से दूर होगा, मायावी होगा तो वह आलोचना निम्नलिखित आठ कारणों से करेगा-१. अपमान निन्दा से बचने के लिए २. तुच्छ जाति के देवों में उत्पन्न होने से बचने के लिए ३. निम्न मानव कुल में उत्पन्न होने से बचने के लिए ४. विराधक समझे
जाने का भय ५. आराधक होने की आकांक्षा ६. आराधक न होने का भय, ७. आराधक होने का | -मायाचार और ८. मायावी समझे जाने का भय । इसी प्रकार आगमों में ऐसे भी कारणों का उल्लेख आता
है जिनके कारण मायावी आलोचना प्रतिक्रमण नहीं करते-१. अपराध करने पर पश्चात्ताप की क्या आवश्यकता, २. अपराध से निवृत्त हुए बिना आलोचना की क्या उपयोगिता, ३. अपराध की पुनः प्रवृत्ति
यश-(चतुर्दिशाओं में व्याप्त) ५. अपकीर्ति (क्षेत्रीय बदनामी), ६. अपनय (सत्कार न होना) ७. कीर्ति पर कलंक का भय ८. यश कलंकित होने का भय । मायावी साधक इन कारणों से पश्चात्ताप नहीं करता। वह मन ही मन पश्चात्ताप रूपी आग में जलता रहता है, चारित्रिक पतन से अपमानित होता है और मरकर दुर्गति में जाता है।
आलोचना निर्दोष होनी चाहिए । उसमें किसी भी तरह का छल-कपट न हो। भगवती आराधना (२५७), ठाणांग (१०.७३३), तत्त्वार्थ राजवात्तिक (९२.२२) आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख मिलता है- १. प्रायश्चित्त के समय आचार्य को उपकरण आदि देना ताकि प्रायश्चित्त थोड़ा मिले-आकंपयिता २. अनुमान लगाकर अथवा दुर्बलता आदि का बहाना कर प्रायश्चित्त लेना-अणुमाणइत्ता ३. दूसरों के द्वारा ज्ञात दोषों का प्रकट कर देना और अज्ञात दोषों को छिपा लेना-दिट्ठ। राजवात्तिक में इसी को मायाचार कहा है । ४. केवल स्थूल दोषों को कहना-बायरं । ५. अल्प दोषों को कहना-सुहुमं । ६. उसी दोष में निमग्न साधु से आलोचना करना-तस्सेवी । ७. एकान्त स्थान में धीरे
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9. भगवतीसूत्र, 25.7 टीका; तत्त्वार्थवात्तिक 9:21-2 11. ठाणांग, 8.3•604
10. वही, 25.7 12. ठाणांग, 8.3:597
१३४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य