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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
निश्चय ही यह भावना साधक को बहिर्जगत से अन्तर्जगत उपर्युक्त पंक्तियों में कथ्य विचार से निष्कर्षत: यह की ओर उन्मुख करने में परम सहायक-सिद्ध होती है। कहा जा सकता है कि जैन तपःसाधना शरीर को कष्ट
जैनागमों में कहीं-कहीं पर व्यूत्सर्ग के स्थान पर कायो- देने की अपेक्षा उसे विकार-विवजित बनाती है। इसमें त्सर्ग का उल्लेख मिलता है।101 कायोत्सर्ग में भी शरीर अन्तःकरण को शुद्ध किया जाता है, सुप्त चेतना को के साथ-साथ सर्वप्रकार के ममत्व का त्यागना होता है। जगाया जाता है अर्थात् अंतरंग की शक्ति का उद्घाटन ममता हटते ही साधक में समता के भाव उदय होने लगते होना होता है । साधक कभी अनशन करके तो कभी भूख हैं । विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी माध्यस्थ
से कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण कर तो कभी भावना जाग्रत रहती है। देव-मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी किसी रस को तजकर शरीर को नियन्त्रित करता हुआ भयंकर से भयंकर उपसर्गों की चिन्ता न करते हुए सम्यक्-
चेतन-अवचेतन मन में प्रविष्ट वासनाओं पर विजय प्राप्त
चेतन-अवचेतन मन में प्रविष्ट वासनाआ पर रूप से अर्थात् मन-वचन-काय अर्थात् समभाव से साधक करता है। इन सबके लिये ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठनसाधना में अपने चित्त को एकाग्र किये रहता है ।102
चिन्तवन आदि में वह लीन रहता है। संसारी-बाह्य वास्तव में कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो जाता है, वह प्रभावों से अपने को अलग करता हुआ साधक अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में भी सिद्धहस्त हो जाता है 1108 आत्मस्वभाव अर्थात् आत्मस्वरूप की प्राप्ति में जीवन को जैनागमों में व्युत्सर्ग104/कायोत्सर्ग106 अनेकानेक भेदों
तपःसाधना/अध्यात्म साधना में खपा देता है। वास्तव में प्रभेदों में वर्णित हैं । सर्वार्थसिद्धि में व्युत्सर्ग तीन प्रकार
तप की साधना जीवन का एक अनिवार्य अंग है। जीवन से स्पष्ट किया गया है। एक में ममकार एवं अहंकार के प्रत्येक क्षेत्र में तप की आवश्यकता पग-पग पर बनी आदि का त्याग, दूसरे में कायोत्सर्ग आदि करना तथा रहती है। संसार की समस्त समस्याएँ-बाधाएँ तपमय तीसरे में व्युत्सर्जन करना होता है। 106
जीवन से ही समाप्त हुआ करती हैं। अस्थिरता, अशान्ति, इस तप के प्रभाव से प्राणी-प्राणी में समभाव, बेचैनी, एक अजीब प्रकार की उकताहट-निराशादि के तटस्थता/निष्पक्षता, जो है उसके स्वरूप की प्रतीति,
वातावरण में तप-साधना जीवन को एक नया आयाम देती चिन्तनात्मक दृष्टि, विषम परिस्थितियों में सहिष्णता, है, स्फूर्ति और शक्ति का संचार करती है। जिस प्रकार निर्भयता तथा बलिदान-कर्तव्य की भावना-आस्था सदा
सूर्य-रश्मियाँ संसार को प्रतिदिन एक नया जीवन देती हैं, विद्यमान रहती है जिसकी आज के विषादयुक्त वातावरण
उसी प्रकार यह तपःसाधना संसारी प्राणी को एक नई में परमावश्यकता है। निश्चय ही यह तप भौतिक वस्तुओं
चेतना देगी, जागृति देगी। निश्चय ही इससे अग-जग में के साथ-साथ शरीर के प्रति जो ममत्व है, उसे समाप्त
एक नया दिन, एक नई रात और एक नया रूप प्रस्फुटित
होगा। कर प्रसन्नता-आनन्द का वातावरण प्रदान कराएगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची१. (क) प्रवचनसारोद्धार, द्वार २७०, गाथा १४६२
(ख) राजवार्तिक, ९/६/२७/५६६/२२ २. (क) भगवती आराधना, मूल/१४७२-१४७३
(ख) गोपथ ब्राह्मण, २/५/१४ (ग) कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/6 (घ) तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/७/७० (ङ) मनुस्मृति, ११/२२६
(च) मुण्डकोपनिषद्, १/१/८ १०० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
३. (क) शतपथ ब्राह्मण, ३/४/४/२७
(ख) सामवेद पूर्वाचिक १/११/१० ४. अथर्ववेद, ११/५/४ ५. मनुस्मृति, ११/२३८ ६. (क) दशवकालिक, १/१
(ख) वाल्मीकि रामायण, ७/८४/8 ७. आत्मानुशासन, श्लोक ११४ ८. मज्झिमनिकाय कन्दरक सूत्र ।
-भगवान बुद्ध, पृष्ठ २२०,
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