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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जहां किसी भी प्रकार का व्यामोह/ममत्व का अवसर न रेखा मिट-समिट जाती है। जो वह भीतर है, वही बाहर मिलता हो तथा ध्यान-साधना में किसी भी प्रकार का और जो बाहर है, वही भीतर । उसका आचरण दर्पण सदृश विघ्न-व्यवधान उत्पन्न न होता हो। कौन-कौन से स्थान धवल-उज्ज्वल रहता है। जब व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूपसाधुओं के ठहरने और न ठहरने के योग्य हैं, जैनागम में गुणों का चिन्तवन करता है, तो प्रायश्चित्त-प्रवृत्ति उसमें इसका विशद् दिवेचन हुआ है।60
उदभूत होती है, वह सहज भाव से किये गये दोषों का ___ निश्चय ही इस तप द्वारा साधक असवृत्तियों से
परिहार करने के लिये सदा तत्पर रहता है। निश्चय ही हटकर सद्वत्तियों में अपने मन-वचन और शरीर को यह तप पापमुक्ति का मार्ग-प्रदर्शक है। दोष-निवारण के तन्मय करता हुआ सुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत कर सकता
अनेक साधन-उपाय होने के कारण जैनागम में इस तप के
अनेक भेद-प्रभेद स्थिर किये हैं जिनकी संख्या कहीं पर नौ है। काम-वासना, अहं-भावना, क्रोध-ज्वाला, कपट,
है तो कहीं पर दस63 और कहीं-कहीं पर नौ व दस छल, प्रवंचना, तथा दूसरों के धन-सम्पत्ति हड़पने की प्रक्रिया की वह्नि जो आज प्रज्वलित है जिससे परिवार- '
दोनों ही दृष्टव्य है ।64 समाज-राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता-असामा- इस प्रायश्चित्त तप की उपयोगिता को देखते हुए बड़ेजिकता तथा अराजकता-आतंकवादिता का शोर-शराबा बड़े साधु-सन्त, ऋषि-आचार्यों ने इसे अपने दैनिक जीवन परिलक्षित है, शान्त-शमन हो सकती है।।
का एक अंग बनाया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे प्रबुद्ध
सन्तों की दैनिक डायरी का निरन्तर उपयोग इसका स्पष्ट तपःसाधना के छठवें क्रम तक पहुँचकर साधक को
प्रमाण है। आज के कृत्रिमता व्यस्तता से अनुप्राणित यह अनुभव होने लगता है कि जीवन जीने का लक्ष्य मात्र
तथा छोटे-बड़े विभिन्न अपराधों से संपृक्त जीवन में यदि उदरपूर्ति के साधन-उपकरण जुटाने/एकत्रित करने अर्थात्
कोई भी व्यक्ति प्रत्येक दिन किसी भी क्षण अथवा सोने से इन्द्रियजन्य व्यापारों में खपाने की अपेक्षा आत्म-शोधन
पूर्व अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों के लेखे-जोखे को समभाव विकास में ही होना श्रेयस्कर एवं सार्थक है । साधना के
अथवा निलिप्त भाव से निहारे अर्थात प्रायश्चित्त तप को प्रथम चार चरण आहार त्याग से सम्बन्धित हैं क्योंकि
अपनाये तो निश्चित ही वह व्यक्ति साधारण से साधारण बिना आहार-शुद्धि के शरीर-शुद्धि और तज्जन्य चित्त-शुद्धि
और जघन्य से जघन्य अपराध-भूलों को भविष्य में न करने का होना नितान्त असम्भव है। शेष दो चरणों में शरीर की
का संकल्प लेगा तथा तदनुरूप अपनी दैनिक चर्या का संचाशुचिता पर बल दिया गया है जिससे मन विकृति से हटकर
लन करेगा। यह प्रायश्चित्त भाव अपराधियों को एक बार निवृत्ति की ओर उन्मुख होता हुआ साधना-पथ पर नैरन्तर्य
पुनः सादगीपूर्ण जीवन जीने का मार्ग प्रस्तुत करता है । आगे बढ़ने को प्रवृत्त हो सके ।
इसलिये समय-समय पर सन्त-मनीषियों ने जेलों में, ७. प्रायश्चित्त
अपराधी-स्थलियों में जा-जाकर अपराधियों का हृदय प्रमाद अथवा अज्ञानता में हए पापों/अपराधों/दोषों/ परिवर्तन कराया, उन्हें सम्यक् साधना का उदबोधन दिया भूलों का संशोधन/शुद्धीकरण/निराकरण/परिहार तथा
और ज्ञान दिया जाग्रत जीवन-चर्चा जीने का । निःसन्देह भविष्य में इन कार्यों की पुनरावृत्ति न होने देने का स्वकृत
यदि यह प्रायश्चित्त भाव जन-जन तक पहुंचे, इसकी सकल्प, प्रायश्चित्त तप कहलाता है। यह आभ्यन्तर तप
उपयोगिता-उपादेयता को बताया जाय तो जो आज का प्रथम चरण है। इस तप से साधक में आर्जव गुण अपराध-अपराधी दिन प्रतिदिन नये-नये रूपों में जन्म ले अर्थात मनसा-वाचा-कर्मणा में एकरूपता, समरसता का रहे हैं, विकसित अथवा पनप रहे हैं, वे समूल नष्ट-विनष्ट संचार होता है। साधक शनैः-शनैः साधनापथ में निर्बाध हो जायेंगे और एक अपराधी जीवन सादगी-मर्यादा-कर्तव्य. रूप से आगे बढ़ता जाता है अर्थात् शुद्ध-निर्मल-पवित्र परायणतादि से युक्त-संयुक्त होगा। निश्चय ही यह प्रायश्चित्त सरल-स्वभावी हो जाता है अर्थात् बाहर-भीतर की अन्तर- तप की व्यावहारिक उपयोगिता कहलाएगी।
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६६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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