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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
का प्रचलन आधुनिक सभ्यता का एक अंग बन गया है, है। निश्चय ही इस तप के माध्यम से शीत, वात, वहाँ इस रस-परित्याग तप की कितनी आवश्यकता एवं आतप, उपवास, तृषा, क्षुधा आदि असहनीय से असहनीय सार्थकता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। निश्चय ही विकट परिस्थितियों में/वातावरण में भी साधक समता जिस भोजन से, जो मानव स्वभाव के सर्वथा अनुकूल है, भाव और सहजवृत्ति के साथ जीवन का वास्तविक आनन्द स्वस्थ विचार, संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमादि उठा सकता है । आज की आपाधापी, अस्थिर, हिंसात्मक समस्त गुणों का समापन होता हो, मोहादिक कृत्सित स्थिति में भयाक्रान्त व्यक्ति को निर्भयता, निडरता, वत्तियों, भोग-वासनादिक तामसी वत्तियों, मान-अभिमानादि
सहिष्णुता, सहनशीलता तथा शक्ति-सामर्थ्य अर्थात आत्म
बल के जागरण के लिये कायक्लेश तप की नितान्त काषायिक-विकारों का प्रादुर्भाव होता हो, तथा आत्मतत्त्व
आवश्यकता रहती है। निश्चय ही इस तप की भूमिका का अपकर्षण होता हो, सर्वथा अखाद्य-अभक्ष्य कहलाएगा। आज इन्हीं भोजन का मात्र रस-लोलुपता हेतु निर्बाध रूप
आज के घिनौने वातावरण में बुझते हुए दिये को प्रज्वलित से सेवन किया जा रहा है जिसके दूषित परिणाम आज
करने के समान है। हमारे बीच में हैं। ऐसी स्थिति-परिस्थिति में यह तप ६. प्रतिसंलीनता निश्चय ही एक उत्तम टॉनिक का कार्य करेगा।
शरीर-इन्द्रिय-मन-वचन आदि का संयमन, एकान्त ५. कायक्लेश
स्थल पर रहना अर्थात् भोग से योग की ओर, विभावों से आत्म-साधना में शरीर को साधनानुकूल बनाने के
स्वभाव की ओर अर्थात् सांसारिक/काषायिक वृत्तियों से लिये अर्थात् शरीर के प्रति ममत्व का विसर्जन, अनासक्त असांसारिक वृत्तियों/तपःसाधना की ओर अर्थात् बहिर्मुख भाव का बोध उत्पन्न कराने के लिये अर्थात शरीर और से अन्तमुख की ओर ले जाने की प्रक्रिया/साधना, उसमें निवास करने वाली आत्मा एक नहीं, अलग-अलग है,
प्रतिसंलीनता/संलीनता66/विविक्तशयनाशन57 अथवा यह अनुभूति-शक्ति जाग्रत कराने के लिये साधक द्वारा इस
विविक्तशय्यासन अथवा विविक्तशय्या तप कहलाती है। नश्वर शरीर को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनगिनत असहनीय
श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिसंलीनता तप बाह्य तप के वेदना-पीड़ा-कष्ट पहुंचाना, कायक्लेश तप कहलाता है। छठवें जबकि दिगम्बर आम्नाय में विविक्तणय्यासन पांचवें तपःसाधना में यह तप श्वेताम्बर परम्परा में पांचवें स्थान क्रम में निर्दिष्ट किया गया है। पर तथा दिगम्बर आम्नाय में यह छठवें स्थान पर रखा कर्म-विपाक से विमुक्ति हेतु तप:साधना बिना व्यवधान गया है। किन्तु इसके मौलिक स्वरूप में कोई भिन्नता नहीं के निर्बाध रूप से चलती रहे, इस हेतु जैनागम में इस तप है। दोनों परम्पराओं में इसका मूलोद्देश्य एक ही है- के इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिकाया को कष्ट देना/देह का दमन करना/इन्द्रियों का निग्रह संलीनता तथा विविक्तशयनासन नामक चार भेद किये गये करना अर्थात् आत्मकल्याणार्थ शरीर के प्रति ममत्वमोह का हैं 168 इन्द्रिय प्रतिसलीनता में इन्द्रियों को आत्म-केन्द्र की विसर्जन । यह शरीर के कर्दनरूप तप अनेक उपायों द्वारा ओर मोड देना/सिकोड लेना अर्थात संलीन कर देना होता सिद्ध होता है, फलस्वरूप जैनागम में इसके अनेक भेद
है। जबकि कषाय प्रतिसंलीनता में काम-क्रोध-मान-मायाप्रभेद स्थिर किये गये हैं 152
लोभादिक कषायों और उनकी प्रकृतियों को नियन्त्रण में शारीरिक कष्ट या तो प्रकृतिजन्य या उपसर्गों (देव- रखना होता है। वास्तव में कषाय प्रत्येक जीव के जन्ममनुष्य-तिर्यञ्च गति के जीवधारियों द्वारा जिसे परीषह मरण अर्थात् सांसारिक भ्रमण के निमित्त का कारण बनते या उदीरणा के रूप में जिसे कायक्लेश कहते हैं, साधक हैं।69 योग प्रतिसंलीनता में साधक द्वारा मन-वचन-काय को भोगने/सहने पड़ते हैं ।58 इस प्रकार साधक स्वकृत एवं की प्रवृत्तियों को कम अर्थात् अन्तर्मुखी बनाया जाता है। परकृत दोनों प्रकार के शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहन विविक्तशयनाशन जैसा कि नाम से स्पष्ट है-एकान्त करता हुआ मात्र आत्म-चिंतन में लीन रहता है। ध्यान स्थल । इसमें साधक को ऐसे स्थानों पर अपनी दैनिक में केन्द्रित होने के लिये इस तप की साधना परमावश्यक आवश्यक क्रियायें जैसा उठना, बैठना, शयन करना आदि
तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६५
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