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साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रस्तुत आलेख में 'तपःसाधना और आज की जीवन्त आचार-विचार, इतिहास, संस्कृति, कला-विज्ञान, भूगोल, समस्याओं के समाधान' नामक विशद किन्तु परम उपयोगी खगोल-ज्योतिष आदि विविध पक्षों का तलस्पर्शी विवेचन एवं सामयिक विषय पर संक्षेप में चिन्तन करना हमारा हुआ है, वहाँ साधना-पक्ष में तपःसाधना की विवेचना भी मूल अभिप्रेत है।
सूक्ष्म तथा तर्कसंगतता लिये हुए है। जैनदर्शन के तप की भारतीय संस्कृति-वैदिक, बौद्ध तथा जैन-सभी में
स्वरूप-पद्धति अन्य दर्शनों की तपःसाधना से सर्वथा संसारी जीव के अन्तःकरण की शुद्धता/पवित्रता तथा मोक्ष
भिन्नता रखती है। बौद्ध धर्म में तप की श्रेष्ठता-निकृष्टता प्राप्ति कर्ममुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है अर्थात् जीवन
पर वैदिक धर्म में तप तेजस् के अर्थ में, साधना के रूप
में तथा स्वरूप और ध्येय की दृष्टि से विशद विवेचना का लक्ष्य ज्ञान-ध्यान-तप पर केन्द्रित किया गया है। तप
की गई है जबकि जैत धर्म में आत्मविकास में सहायक तप भारतीय साधना का प्राण-तत्त्व है क्योंकि उससे व्यक्ति का
की प्रत्येक क्रिया पर अर्थात् तप के समस्त अंगों पर वैज्ञाबाहर-भीतर समग्र जीवन परिष्कृत/परिशोधित होता हुआ
निक विश्लेषण हुआ है। जैन दर्शन निवृत्तिपरक होने के उस चरम बिन्दु पर पहुंचता है जहाँ से व्यक्ति, व्यक्ति नहीं
फलस्वरूप हठयोग अर्थात् तन-मन की विवशता, उस पर रह जाता है अपितु परमात्म अवस्था अर्थात् परमपद/
बलात् कठोरता के अनुकरण की अपेक्षा सर्वप्रथम साधना सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। तप की इस महिमा-गरिमा
की भावभूमि को तैयार कर तन/शरीर को तदनुरूप किया को देखते हुए वेद-आगम-पिटक सभी एक स्वर से तप को
जाता है। अनवरत अभ्यास साधना की यह प्रक्रिया शनैः भौतिक सिद्धि-समृद्धि का प्रदाता ही नहीं अपितु आध्यात्मिक
शनैः बाह्य और अन्तःकरण को परिमार्जित करती हुई तेज-शक्ति-समृद्धि का प्रदाता भी स्वीकारते हैं । तपःसाधना
साधक को तप-साधना में प्रवेश हेतु प्रेरणा प्रदान करती है। से लब्धि-उपलब्धि, ऋद्धि-सिद्धि, तेजस् शक्तियां, अगणित
यहाँ इस साधना में शरीर-कृशता की अपेक्षा कार्मिक-कषायों विभूतियाँ सहज ही प्रकट होने लगती हैं। अर्थात् तप से
की कृशता पर मुख्य रूप से बल दिया गया है क्योंकि सर्वोत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है । इस जगत में ऐसा
जिस तप से आत्मा का हित नहीं होता, वह कोरा शारीरिक कोई पदार्थ नहीं है जिसकी प्राप्ति तप से द्वारा न हो सके।
तप निश्चय ही निस्सार है।13 जैन दर्शन की मान्यता है तप से प्राणी संसार में विजयश्री एवं समृद्धि प्राप्त कर,
कि संसारी जीव राग-द्वेषादिक/काषायिक भावों अर्थात् संसार की रक्षा कर सकता है। संसार की कोई भी शक्ति
विविध कर्मों से जकड़ा होने के कारण अपने आत्मस्वरूपतपस् तेज के सम्मुख टिक नहीं सकती। वास्तव में तप
स्वभाव (अनन्त दर्शन-ज्ञान, अनन्त आनन्द-शक्ति आदि) मंगलमय है, कल्याणकारी है, सुख प्रदाता है। वह समस्त
को विस्मरण कर अनादिकाल से एक भव/योनि से दूसरे बाधाओं, अरिष्ट उपद्रवों को शमन करता हुआ क्षमा,
भव/योनि में अर्थात् अनन्त भवों/योनियों में इस संसारशान्ति, करुणा, प्रेमादिक दुर्लभ गुणों को प्राप्त कराता
चक्र में परिभ्रमण करता हुआ अनन्न दु:खों संक्लेशोंहआ मोक्ष-पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है, अस्तु, वह लौकिक- विकल्पों में जीता है, अत: दुःखों से निवृत्ति कर्मबन्ध से मुक्ति अलौकिक दोनों ही हित का साधक है।' निश्चय ही तप के अर्थात आत्म-विकास हेतु/मोक्ष प्राप्त्यर्थ साधना का निरूपण द्वारा हर प्राणी/जीव, आत्मस्वरूप के दर्शन कर आनन्द को जैन दर्शन का मुख्य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य हेतु जो अनुभूति करता है। तपःसाधना व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म साधना की जाती है, वह साधना वस्तुतः तप कहलाती की ओर, बहिर्जगत से अन्तर्जगत की ओर ले जाने में है। नारकी-तिर्यञ्च-देवों-मनुष्यों में मात्र मनुष्य ही तप प्रेरणा-स्फुति का संचार करती है, क्योंकि बाहर कोलाहल की आराधना, संयम की साधना कर, अविरति (हिंसाहलचल है, दूषण/प्रदूषण है, जबकि भीतर निःस्तब्धता, झठ-प्रमाद आदि), कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) से विमुक्त निश्चलता, शुद्धता है।
होता हुआ तथा कर्मों की संवर-निर्जरा करता हुआ16 विश्व के समस्त दर्शनों में भारतीय दर्शन और भारतीय वीतरागता की ओर प्रशस्त होता है। इललिये जैन दर्शन दर्शन में जैन-दर्शन का अपना स्थान है । जैन-दर्शन में जहाँ में सांसारिक सुखों, फलेच्छाओं, एषणाओं, सांसारिक
तप:साधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया |
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