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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
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-राजीव प्रचंडिया
( एडवोकेट ) आज हम और हमारा विकास के उत्तुङ्ग शिखर पर को जन्म देते हैं, रागद्वेषात्मक प्रवृत्तियां इनसे उद्भूत होती है, नये-नये उपकरण, आधुनिक अत्याधुनिक साधन-प्रसाधन हैं। जब हमारा जीवन इन दूषित वृत्तियों में सिकुड़-सिमट हमने ईजाद/हासिल किये हैं। आज हमारे पास सब कुछ है, कर रह जाता है तब जीवन में बसन्त नई किन्तु इस सब कुछ में हमारे बीच जो होना चाहिये, वह आना होता है, आज व्यक्ति/समाज/राष्ट्र-अन्तर्राष्ट्र में चारों नहीं है, यह एक बिडम्बना है। स्थायी सुख-शान्ति ओर जो पतझड़ छा रहा है दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण, अर्थात् आनन्द से हम प्रायः वंचित हैं। वह आनन्द जो न उसका मूल कारण है हम तपः साधना से हटकर भोगकभी समाप्त होने वाला अक्षय कोष/निधि है, जो हमें वासना की दिशा में भटक रहे हैं। यह निश्चित है कि तुप मोक्ष के द्वार अर्थात् मुक्ति के पार पर ला खड़ा करता है, से जीवन में बसंत आता है और भोग से पतझड़। तपःसाधना हमसे न जाने कहाँ गुम हो गया है और हाथ आये हैं मात्र जीवन को नम्रता, वत्सलता, दया, प्रेम, वसुधैव कुटुम्बकम् आकर्षण-विकर्षण के रंग-बिरंगे परिधान, नष्ट होने वाली की आस्था, सहनशीलता-सहिष्णता, क्षमादिक उदात्त नाना प्रकार की सम्पदायें, बोलती-अबोलती आपदायें- भावनाओं/मानवीय गुणों से अभिसिंचित करती है जबकि विपदायें जिनसे सारा का सारा जीवन बाह्य/संसारी प्रभावों भोग में अहंकारिता, कटुता, द्वेष, घृणा, स्वार्थ, संघर्ष, में घिर/उलझ जाता है अर्थात् संसार-सागर में डूबता- संकीर्णतादिक अमानवीय/घातक तत्वों का समावेश रहता उतराता रहता है । फलस्वरूप सहजता की ओट में कृत्रि- है। निश्चय ही तप:साधना में तृप्ति है, जबकि भोगमता मकड़जाल सदृश अपना ताना-बाना बुनने लगती है वासना में वृत्ति है, विकास है कामनाओं का । जितने भोग और हम सब कृत्रिममय होने की होड़ में आज व्यस्त हैं, वासनाओं के हेतु, उपकरण, साधन-सुविधाएँ जुटायीं जाएगी, अस्तु त्रस्त-संत्रस्त हैं। यह सच है, कृत्रिम जीवन से जीवन अतृप्ति उतनी ही अधिक उद्दीप्त होगी, तब जीवन में में तनाव आता है । तनावों से संपृक्त जीवन में असलियत बसन्त अर्थात् अनन्त आनन्द नहीं, अपितु पतझड़ अर्थात् की अपेक्षा दिखावटपने का अश लगभग शत-प्रतिशत बना विभिन्न काषायिक भाव जो हमारे अस्तित्व, यथार्थ स्वरूपरहता है । एक अजीब प्रकार की घुटन, बैचेनी, उकताहट, स्वभाव को धूमिल किये हुए हैं, परिलक्षित/विकसित होंगे। एक दूसरे में अविश्वास के दौर से हम संसारी जीव बाहर ऐसी स्थिति-परिस्थिति में तप की उपयोगिता-उपादेयता कुछ-भीतर कुछ में जीने लगते हैं। ये कुछ ही तो विकृतियों असंदिग्ध है।
९० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य