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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
का होना वैदिक०० एवं जैन दोनों शास्त्रों में समान रूप से माना गया है। आ. शंकर 'परमार्थ' का वर्णन करते हुए इसे अद्वैत दर्शन में कारण मानते हैं। आचार्य शंकर का वचन 'निश्चयेन ब्रह्माहमस्मि' ---'इत्यपरोक्षीकृत्य'62 हमें जैन दर्शन के निश्चयनय का स्पष्ट ध्यान कराता है।
_ वेदान्तदर्शन की तरह ही,63 जैनदर्शन का भी चरम लक्ष्य जीव-ब्रह्म की एकता या शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अधिगति (प्राप्ति) में पर्यवसित हो जाता है ।
जैन दृष्टि से अभेददृष्टि परमब्रह्म तक जाने का, उससे एकात्मता-प्राप्ति का, अर्थात् स्वस्वरूपस्थिति पाने का एकमात्र साधन है। वस्तुतः तो परमतत्त्व सभी नयों/दृष्टियों से अतीत है ।15 'नय' एक पक्ष है, उसका काम परमब्रह्म तक का मार्ग दिखाना मात्र है। परमात्मता प्राप्ति होने पर साधक-साध्य, उपासक-उपास्य, हेय-उपादेय-सभी भाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं और शुद्ध चिन्मात्र रूप अवशिष्ट रह जाता है।66 आ. शंकर के मत में भी ब्रह्म की सत्ता अखण्ड है, मन, वाणी व इन्द्रियों से अतीत है, देश-काल आदि मर्यादाओं से अमर्यादित है। उसका व्याख्यान नेति नेति ही हो सकता है। ब्रह्म सच्चिदानन्द है,68 अपने मूल रूप से कभी भी व्यभिचरित न होने के कारण सत् है, चैतन्य है-सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । जैनदर्शन भी परमतत्त्व को अखण्ड, नेति नेति द्वारा वर्ण्य स्वरूप वाला, तथा अवाङ मनोगोचर मानता है। वेदान्तदर्शन में संसारी जीव व परमात्मतत्त्व 'परब्रह्म' में भेद का कारण/आधार अविद्या या अज्ञान है, वस्तुतः उनमें कोई भेद नहीं है। इस अज्ञान का निरस्तीकरण पारमार्थिक ज्ञान से हो जाता है। अविद्या के निरस्त हो जाने पर जीव ब्रह्मरूपता प्राप्त कर लेता है।
60. एकत्वं पारमाथिकम, मिथ्याज्ञानविज़म्भितं च नानात्वम्-(ब्रह्मसत्र-2/1/14 पर शांकर भाष्य)।
द्र.विष्णपुराण-1/2/6, 10-13, 2/14/29-31, 2/15/34-35, 2/16/24, 6/8/100, ब. सू. 1/1/4/4
(शांकरभाष्य) । ब्र. सू. 2/1/27 (शांकरभाष्य), भागवत पुराण-5/12/11 61. समयसार-8 पर आत्मख्याति व तात्पर्यवृत्ति टीका, समयसार-कलश-18 62. श्वेता. उप. 4/11 पर शांकर भाष्य 63. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः (बृहदा. उप. 2/4/5)| विषयो जीव-ब्रह्मक्यं, शुद्ध
चैतन्यं प्रमेय तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यात् (वेदान्तसार-4)। आत्मकत्व-विद्या-प्राप्तये सर्वे वेदान्ता आरभन्ते (ब.स.
शांकर भाष्य, प्रस्तावना)। 64. पद्मनन्दि पंच. 4/20-21, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-4/79, अध्यात्मसार-18/2, इष्टोपदेश-49, 65. समयसार-142, पदमनन्दि-11/53,42-43, समयसारकलश-4,9, 66. प्रवचनसार-2/80, ज्ञानसाराष्टक (निर्लेपाष्टक), ज्ञानसार-26/3, 67. वेदान्तसार, 1/1, तैत्ति. उप. 2/4. केनोप. 1/3,4, मुण्डकोप-3/1/8, गीता-11/8, बृहदा. उप. 4/5/15,
कठोप-2/6/12, मांडक्योप-7, उपदेशसाहस्री-सम्यग्मति प्रकरण-71 68. वेदान्तसार-1, योगतत्वोप. 17,
69. तैत्ति . उप. 2/1, 70. आचारांग-5/6/123-125, समयसार-142, पद्मनन्दि पंच. 11/2,53,42-43, परमात्मप्रकाश-19-22, समय
सार कलश-4-9, 71. अविद्याकल्पितं वेद्यवेदितवेदनादिभेदम् (ब. स. शांकर भाष्य-1/1/4)। मिथ्याज्ञानकृत एव जीवपरमेश्वरयो दः न
वस्तुकृतः (शांकरभाष्य-ब. सू. 1/3/19) । अविद्या-निवृत्ती स्वात्मन्यवस्थानं परप्राप्तिः (तैत्ति. उप. शांकरभाष्य
प्रस्तावना)। अविद्या-निवृत्तिरेव मोक्षः (मुण्डकोप-1/5 शांकरभाष्य)। 72. ब्रह्मसूत्र-2/1/20, शांकरभाष्य
'तत्त्वमसि वाक्य' : डॉ० दामोदर शास्त्री | ८७