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साध्वीरत्न पुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ
अनेकान्तवादी जैनदर्शन में सामान्य तत्त्वों को देखने-समझने-परखने के लिए दृष्टियों-नयों (द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक,, तथा नैगम आदि सात नयों) की कल्पना है, वैसे ही आत्म-तत्त्व को अध्यात्मसाधना के सन्दर्भ में हृदयंगम करने हेतु दो अन्य विशिष्ट नयों का निरूपण किया यया है। वे हैं(१) व्यवहारनय, और (२) निश्चयनय ।
निश्चयदृष्टि वस्तु में अभेद देखती है। व्यवहारदष्टि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-इन चारों में से किसी एक प्रकार से या अनेक प्रकार से भेद देखती है, और कभी-कभी पर-द्रव्य के गुणों/धर्मों को भी किसी द्रव्य में औपचारिक दृष्टि से आरोपित कर लेती है। निश्चयदृष्टि की दो कोटियाँ हैं। निचली कोटि (अशुद्ध) आत्म द्रव्य के उन्हीं धर्मों/गुणों को स्वीकार करती है जो परानपेक्ष हों, अर्थात् आत्मा के स्वभाव-भूत धर्मों को ही अंगीकार करती है, किन्तु निश्चयनय की उच्च (शुद्ध) कोटि टि आत्म द्रव्य के स्वभावभूत गुणों/धर्मों/त्रैकालिक भावों/अवस्थाओं में भी अभेद देखती है, अर्थात् रागादिनिर्मुक्त अखण्ड 'चिन्मात्र' परमतत्त्व का विषय करती है। अद्वैत दृष्टि (शुद्ध निश्चयनय) से आत्मा के बन्ध, मोक्ष, राग, द्वेष, आदि कुछ भी नहीं है । वह सर्वथा शुद्ध व मुक्त है।
शांकर वेदान्तदर्शन में पारमार्थिक, व्यावहारिक व प्रातिभासिक-ये तीन सत्ताएँ मानी गई हैं। इनमें पारमार्थिक व व्यावहारिक सत्ताएँ जैनसम्मत निश्चयनय व व्यवहारनय से सम्बद्ध प्रतिपादित की जा सकती है।
जैन मान्यता के अनुसार, व्यवहारदृष्टि से द्वत बुद्धि और निश्चयनय से अद्वैत बुद्धि उत्पन्न होती है । द्वैत बुद्धि संसार को-बन्ध को बढ़ाती है, और अद्वैत बुद्धि मोक्ष की ओर परमात्मता की ओर ले जाती है। 7 ज्ञानी व्यक्ति हेयोपादेय-विशेषज्ञ होता है, इसलिए वह दोनों दृष्टियों को जान कर, आत्मकल्याणकारी अद्वैत दृष्टि (निश्चयदृष्टि) को अंगीकार करता है। परम शुद्ध, एक, अखण्ड आत्मा -'चिन्मात्र' को विषय करने वाली शुद्ध निश्चयदृष्टि का अवलम्बन करने से साधक को अद्वैतरूपता प्राप्त हो जाती है ।58
जैन दर्शन में शुद्ध परमात्मतत्त्व को 'परमार्थ' नाम से तथा इसे विषय करने वाले निश्चयनय को 'परमार्थदृष्टि' नाम से अभिहित किया गया है। परमार्थदृष्टि से अभेद/अखण्ड तत्त्व की अनुभूति
54. समयसार, 141, समयसार कलश-9.10, 120, पद्मनन्दि पंच. 4/5, 17, 32, 75, समयसार गा. 56 व 272
पर आत्मख्याति, आलाप पद्धति-204, 216, प्रवचनसार-1/77 पर तात्पर्य वृत्ति, अध्यात्मसार-9/8, 18/12,
130, 173, 189, 275, 196, यशोविजयकृत द्वात्रिशिका-21/9. 55. समयसार-14-15, 278-79, 141, पद्मनन्दि पंच. 11/17, परमात्मप्रकाश-65, प्रवचनसार-172, परमात्म
प्रकाश-68. 56. पद्मनन्दि पंच. 4/17, 57. पदमनन्दि पंच. 4/32-33, 9/29, अध्यात्मसार-18/196, 58. पद्मनन्दि पंच. 4/31, 11/18, समयसार-186, 206, परमात्मप्रकाश-173 59. प्रवचनसार-2/1 ता. वृत्ति, समयसार-151 पर टीकाएँ (आत्मख्याति व तात्पर्यवृत्ति) घाला-पुरत्व -13, पृ. 280,
286
८६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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