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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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'तत्वमसि' वाक्य
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[जैन-दर्शन और शांकर-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
__ -डा. दामोदर शास्त्री | प्रत्येक दर्शन परमतत्त्व के साक्षात्कार करने का मार्ग प्रशस्त करता है। जैसे विविध नदियाँ विविध मार्गों से बहती हुई भी एक समुद्र में ही जाकर गिरती हैं, वैसे ही सभी दर्शनों का गन्तव्य स्थल एक ही है, मार्ग या प्रस्थान का क्रम भले ही पृथक्-पृथक् हो ।
प्रत्येक दर्शन की अपनी तत्त्व मीमांसा होती है, जिसके आधार पर वह सत्य की व्याख्या करता है। जैनदर्शन को भी एक सुदृढ़ दार्शनिक परम्परा भारत में प्राचीनकाल से विकसित होती रही है। जैन धर्म व दर्शन के प्रथम (वर्तमान कल्प के) व्याख्याता ऋषभदेव माने गए हैं । ये ऋषभदेव वे ही हैं जिन्हें भागवत पुराण में महान् योगी, तथा भगवान् का एक अवतार माना गया है। यही कारण है कि जैन धर्म की शिक्षा में तथा भागवत पुराण के ऋषभ की शिक्षा में पर्याप्त समानता दृष्टिगोचर होती है। दूसरी ओर, वेदान्त दर्शन भी वेद, उपनिषद्, गीता आदि के माध्यम से प्राचीनतम विचारधारा के रूप में पल्लवित होकर परवर्तीकाल में विविध शाखाओं वाले एक सुदृढ़ विशाल वृक्ष के रूप में फलता-फलता रहा है।
दोनों दर्शनों के सम्बन्ध में सामान्यतः यही धारणा है कि वेदान्तदर्शन आस्तिक है और जैन दर्शन नास्तिक । आस्तिकता व नास्तिकता की परिभाषा के पचड़े में पड़ना यहां प्रासंगिक न होगा। हमारा तो यही मत है कि जो भी धर्म या दर्शन आत्मा, पुर्नजन्म, परलोक, कर्म-बन्ध, कर्म-मोक्ष आदि तत्त्वों को मानता हो, वह आस्तिक ही है। आचार्य पाणिनि तथा महाभाष्यकार पतञ्जलि भी उक्त मत
का प्रतिपादन करते हैं। इस दृष्टि से दोनों दर्शन आस्तिक ही हैं। . दोनों दर्शनों में कुछ साम्य है, वैषम्य भी है । विषमता पर विचार करना परस्पर दूरी पैदा
करता है । फलस्वरूप अज्ञानता बढ़ती है, भ्रान्तियाँ पनपती हैं । प्रायः जनता में विषमता को ही उजागर किया जाता रहा है जिससे सम्प्रदायवाद तथा परस्पर कटुता बढ़ती रही है । यहाँ दोनों की समानता के तथ्यों में से एक तथ्यविशेष पर प्रकाश डालना प्रस्तुत निबन्ध का उद्देश्य है।
1. (क) रघुवंश 10/26, गीता-11/28, मुण्डकोप. 3/2/8, भागवत पु. 10/87/31, बृहदा. उप. 2/4/11,
प्रश्नोप. 6/5, महाभारत-शांति पर्व-2/9/42-431 (ख) ज्ञानसाराष्टक (यशोविजय)-16/6, सिद्धसेन-द्वात्रिशिका-5/15 । 2. भागवत पु. 5/3-6 अध्याय । 3. अष्टाध्यायी (पाणिनि) सू. 4/4/60, तथा महाभाष्य (पतञ्जलि)।
'तत्त्वमसि' वाक्य : डॉ० दामोदर शास्त्री | ७६