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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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दार्शनिक दृष्टि को ण
- डा. उदयचंद्र जैन
प्राचीन भारतीय साहित्य में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है । ये हमारी संस्कृति एवं धर्म के संरक्षण और सर्वसाधारण जनों को नीति, चारित्र, योग, सदाचार आदि की शिक्षा देने वाले महानतम ग्रन्थ हैं । इनका एकमात्र उद्देश्य धार्मिक संस्कारों को दृढ़ तथा सरल, सुबोध भाषा में अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को समझाना रहा है, इसलिए ये ज्ञान-विज्ञान के कोश कहे जाते हैं। क्योंकि इनमें सभी वेद और उपनिषदों के ज्ञान को विभिन्न कथानकों के माध्यमों से समझाने का प्रयास किया गया है ।
पुराण - साहित्य का विकास आज से नहीं अपितु प्राचीन काल से ही होता आया है । इनकी कथा, कहानी एवं दृष्टांत प्राचीन ही हैं । जैसा भाषा-शैली में समयानुसार परिवर्तन होता चला गया, वैसा ही पुराण का रूप भी होता चला गया, फिर भी इनमें प्राचीनता का अभाव नहीं हुआ ।
ये सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से ही लिखे गये हैं । तत्वों का विवेचन लोकोपकारी कथानकों, प्रभावशाली दृष्टांतों एवं नैतिक विचारों को उपस्थित कर गहन सिद्धांन्तों को भी बोधगम्य बना दिया । जिसका फल वर्तमान युग में स्पष्ट दिखाई दे रहा है ।
यद्यपि आज इसे स्वीकार नहीं किया जाता । यदि हम इनके विशिष्ट पहलुओं पर विचार करके देखें तो इनकी शिक्षा को भी किसी भी युग में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । रूस, अमेरिका आदि जैसे पाश्चात्य बड़े-बड़े देश हमारी संस्कृति से यों ही प्रभावित नहीं हो जाते ? आज जो कुछ भी हम देख रहे हैं वह सब पुराण साहित्य का ही योगदान कहा जा सकता है ।
अतः यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पुराण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लोकप्रिय और अनुपम रत्न हैं ।
जैनदर्शन का भारतीय दर्शन में स्थान
भारतीय संस्कृति की परम्परा अति प्राचीन मानी जाती है । मनुष्य ने अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए किसी न किसी दृष्टिकोण का सहारा अवश्य लिया होगा । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति की प्राचीनता के साथ दार्शनिक प्राचीनता अवश्य दिखलाई देती है । परन्तु इसका प्रारम्भ कब हुआ, इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है ।
७२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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