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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
184. वही, पृ. 4
185. न्यायप्र. पृ.7 . 186. मी. श्लोक अनु. श्लोक 58-69, 108
187. न्याय रत्ना. मी. श्लोक. अनु. 58-69, 108 188. मी. श्लो. अनु. परि. श्लोक 70 तथा व्याख्या 189. वही, अनु. परि. श्लोक 92 तथा व्याख्या 190. माठर व. का. 5
191. न्यायव. का. 13, 21-25 192-93. न्यायाव., का 21
194. वही, का. 22-23 195. वही, का. 24-25
196. प्रश. भा. पृ. 123 197. न्यायप्र. पृ. 5-7
198. न्या. वि. तृ. परि. पृ. 94-102 199. न्यायविनि. का. 172,299,365,366,370,381 200. परीक्षामुख 6/12-50
201. प्रमाणन. 6/38-82 202. प्रमाणमी. 1/2/14, 2/1/16-27
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पुष्प-चिन्तन-कलिका . एक बार पत्ते ने वृक्ष से कहा-मैं कितने समय से तुम्हारे से बंधा रहा हूँ। मैं अब इस परतंत्र जीवन का अनुभव करते-करते ऊब गया हूँ। कहा भी है 'सर्वम् परवशं दुखं, सर्वम् स्ववशम् सुखं'। अब मैं सर्वतंत्र स्वतंत्र होकर विश्व का आनन्द लूलूंगा।
वृक्ष ने कहा-वत्स! तुम्हारी शोभा और जीवन परतंत्रता पर ही आधृत है । तुम देखते हो कि मेरा भाई-फल वृक्ष से मुक्त होकर मूल्यवान • हो गया है। दुकानदार उसे टोपले में पत्तों की गद्दी बिछाकर सजाता है
वैसे मैं भी आदर प्राप्त करूंगा पर तुम्हारी यह कमनीय कल्पना मिथ्या है। • तुम अपना स्थान छोड़ोगे तो कूड़े-कर्कट की तरह फेंके जाओगे। बिना . * योग्यता के एक दूसरे की देखा-देखी करना हितावह नहीं है। 00000000000000000000000000000
HHHHHHHHHHHHiमामा
जन-न्याय में अनुमान-विमर्श : डॉ० दरबारीलाल कोठिया | ७१
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