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साध्वीरत्नपुष्पवती आभनन्दन ग्रन्थ ।
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की दृष्टि से निरपेक्षता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि वाक्य एक इकाई है जो सापेक्ष या साकांक्ष पदों से निर्मित होकर भी अपने आप में निरपेक्ष होती है। पद वाक्य के आवश्यक अंग हैं और वाक्य इनसे निर्मित एक निरपेक्ष इकाई है । वाक्य खण्डात्मक इकाइयों से रचित एक अखण्ड रचना है।
वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत और उनकी समालोचना' वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दार्शनिकों के दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने के लिए जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्यपदीय से दो श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें उस काल में प्रचलित वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं का एक संक्षिप्त परिचय मिल जाता है।
आरण्यतशब्द: संघातो जाति-संघातवतिनी। एकोऽनवयवशब्दः क्रमो बुद्ध यनुसंहतिः॥ पदमाद्यं पृथक सर्वपदं साकांक्षमित्यपि। वाक्यं प्रतिमतिभिन्ना बहुधा न्यायवादिनाम् ॥
-वाक्यपदीय २/१-२ भारतीय दार्शनिकों को ये वाक्य के स्वरूप को लेकर दो महत्वपूर्ण दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। वैयाकरणिकों का मत है कि वाक्य एक अखण्ड इकाई है । वे वाक्य में पद को महत्वपूर्ण नहीं मानते। उनके अनुसार वाक्य से पृथक् पद का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जबकि दूसरा दृष्टिकोण जिसका समर्थन न्याय, सांख्य, मीमांसा आदि दर्शन करते हैं, वाक्य को खण्डात्मक इकाइयों अर्थात् शब्दों और पदों से निर्मित मानता है । इनके अनुसार पद वाक्य का एक महत्वपूर्ण अंग है और अपने आप में एक स्वतन्त्र इकाई है । यद्यपि इस प्रश्न को लेकर कि क्रियापद (आख्यात पद) अथवा उद्देश्य पद आदि में कौन सा पद वाक्य का प्राण है-इन विचारकों में भी मतभेद पाया जाता है। वाक्यपदीय के आधार पर प्रभाचन्द्र ने वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न मतों का उल्लेख कर उनकी समीक्षा को है।
(१) आख्यातपद हो वाक्य है कुछ दार्शनिकों के अनुसार आख्यातपद या क्रियापद ही वाक्य का प्राण है। वही वाक्य का अर्थ वहन करने में समर्थ है । क्रियापद के अभाव में वाक्यार्थ स्पष्ट नहीं होता अतः वाक्यार्थ के अवबोध में क्रियापद अथवा आख्यातपद ही प्रधान है, अन्य पद गौण हैं।
इस मत की समालोचना करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है या सापेक्ष होकर वाक्य है ? यदि प्रथम विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि आप अन्य पदों से निरपेक्ष होकर वाक्य है तो यह मान्यता दो दृष्टिकोणों से युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि प्रथम तो अन्य पदों से निरपेक्ष होने पर आख्यातपद न तो पद ही रहेगा और न 'वाक्य' के स्वरूप को प्राप्त होगा। दूसरे यदि अन्य पदों से निरपेक्ष आख्यातपद अर्थात् क्रियापद को ही वाक्य माना जाये तो फिर आख्यातपद का ही अभाव होगा क्योंकि आख्यातपद अर्थात् क्रियापद, वह है जो उद्देश्य और विधेय के अथवा अपने और उद्देश्य के पारस्परिक सम्बन्ध को सूचित करता है। उद्देश्य या विधेय पद से निरपेक्ष होकर तो वह अपना अर्थात् आख्यातपद का स्वरूप ही खो चुकेगा
१. विस्तृत विवेचन एवं मूल सन्दर्भ के लिए देखें(अ) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ४५८ से ४६५ । (ब) स्याद्वादरत्नाकर पृ० ६४१-६४७ ।
(स) भाषातत्व एवं वाक्यपदीय पृ० ८५ से ६६ । २. प्रमेयकमलमार्तण्ड के पृ० ४५६ पर उद्धृत वाक्यपदीय के ये दो श्लोक अशुद्ध हैं-हमने उन्हें शुद्ध करके दिया है ।
उसमें दूसरे श्लोक के प्रथम चरण में 'पदमाद्यं पदं चान्त्य' ऐसा पाठ है जबकि अन्यत्र 'पदमाद्यं पृथक्सर्वपदं' ऐसा पाठ मिलता है जो कि अधिक शुद्ध है।
जैन वाक्य दर्शन : डा० सागरमल जैन | ४१
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