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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
जगत् की व्याख्या, कई दृष्टिकोणों से की है। उनकी इस पद्धति में, आज के हर तरह के प्रश्नों का, और उनके समाधानों का निदर्शन सहज ही देख सकते हैं । जगत् के एक-एक स्वरूप की विवेचना, और उसके स्वरूप से जुड़े प्रश्नों के उतर आदि सबको मिलाकर, समुदित रूप से जब तक विचारणा/चिन्तना नहीं की जायेगी, तब तक, जगत् के विश्वरूप की की जाने वाली व्याख्या/विवेचना में समग्रता नहीं आ सकती।
(५) नैयायिकों ने जो आत्म-विवेचन किया है, उसमें आत्मा के सर्वविध दुःखों का अभाव 'मोक्ष' बतलाया गया है । किन्तु, वहाँ/मोक्ष में, आत्मा के साथ 'मन' का संयोग बना रहता है। जिससे उसे 'परमात्मा' कैसे माना जा सकेगा? उसमें मन की उपस्थिति से, सांसारिक प्रवृत्ति के विधायक अवसरों/ साधनों को नकारा नहीं जा सकता। अतः उनकी 'सांसारिकता' और 'मोक्ष'/'मुक्ति' में कोई खास फर्क नहीं जान पड़ता।
(६) मीमांसादर्शन की आत्म-विवेचना को देखकर यह कहा जा सकता है कि एक तो उनका आत्मा 'जड़' है; दूसरे, वे स्वर्ग से भिन्न, किसी ऐसे 'मोक्ष' को नहीं मानते, जिसे प्राप्त कर लेने पर, जीवात्मा को पुनः संसार में न आना पड़े।
(७) सांख्यदर्शन भी मोक्ष में 'सत्त्व' गुणरूपा 'बुद्धि' की सत्ता मानता है। जिससे उसका 'पुरुष' समग्रतः 'ज्ञ' के स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता। बल्कि, वह वहाँ प्रकृति से पराङ मुख रहकर भी, एक तरह से उससे संश्लिष्ट ही रहता है।।
(८) अद्वैतवेदान्त में सब कुछ ब्रह्मरूप माना गया है। फिर माया से, और जगत् के असत् रूप संश्लिष्ट रहने पर भी 'आत्मा' की कोई हानि नहीं मानी जानी चाहिए। किन्तु, यह वास्तविकता नहीं जान पड़ती कि सारा का सारा जगत् ब्रह्मरूप ही है । यदि सारा विश्व ब्रह्मरूप ही होता, तो ब्रह्मरूप जगत्/माया का अभाव कैसे हो सकता है ? यदि उसका अभाव मान लिया जाये, तो ब्रह्म के भी अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जाता है।
) जैनदर्शन ने जीव-अजीव की तर्क-संगत भेद-कल्पना की है। चेतन में अचेतन के सम्मिलन की न्यूनाधिकता के अनुसार, उसने आत्मा के गुणात्मक विकास के सोपानों की विवेचना की है। वह मानता है, कि जिस 'जीव' में जितनी मात्रा में 'अचेतन' का अधिक अंश होगा, वह आत्मिक गुणों के विकास क्रम में, उतना ही पीछे रहेगा । और जिस 'जीव' में 'अचेतन' का अंश जितनी मात्रा में न्यूनतम कम होता चला जायेगा, वह आत्मिक गुणों की विकास-प्रक्रिया में, उतना ही आगे/ऊपर पहुँचता जायेगा । अचेतन के अधिक अंश वाले जीव को 'मोक्ष' प्राप्त कर पाना, अधिक मुश्किल होता है। किन्तु, न्यून/कम अंश वाला 'जीवात्मा' शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
दरअसल, जैनदर्शन, 'जीव' को चेतन-अचेतन की मिश्रित अवस्था मानता है। जिस दिन/क्षण, उसमें से अचेतन का सर्वांशतः निर्गम/पृथक्त्व हो जाता है, उसी दिन/क्षण, वह जीव, संसार से 'मुक्त' हो जाता है । और मुक्त आत्मा में फिर दुबारा अचेतन का प्रवेश नहीं हो पाता; जैनदार्शनिक मान्यता का यह महत्त्वपूर्ण/उज्ज्वल पक्ष है।
भारतीय दार्शनिक साहित्य का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि प्रायः सभी दार्शनिक, 'आत्मा' और 'मोक्ष' के स्वरूप की विवेचना, अलग-अलग तरह से करते आये हैं। जरूरत इस बात की है, इनके पारस्परिक विरोध/मतवैभिन्य पर आग्रह-बुद्धि न रखकर, उसमें सापेक्ष/समन्वित दृष्टि से प्रवेश किया जाये, तो हर आत्मचिन्तक/शोधार्थी के लिये, यह श्रेयस्कर विधि सिद्ध हो सकेगी।
२२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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