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साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरु रूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शतादश ।।
अर्थात्, सर्वव्यापक चित्स्वरूप परमात्मा, प्रत्येक शरीर में निहित बुद्धि में प्रतिबिम्बित होता हुआ, जीवभाव को प्राप्त होता है । जैसे- घड़े में स्थित जल में प्रतिबिम्बित आकाश, घटाकार / घटभाव को प्राप्त करता है ।
उपनिषद्धान्त - उपनिषदों में आत्मा को अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन कहा गया है। जन्म मरण से रहित यह आत्मा शरीर का नाश हो जाने पर भी अस्तित्व में रहता है । उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । यही तथ्य यमराज द्वारा नचिकेता को दिये गये उपदेश में स्पष्ट हुआ है।
उपनिषदों का ब्रह्म भी सत्, व्यापी, नित्य, अनन्त, शुद्ध और चेतन है । यह समस्त आत्माओं का आत्मा है । इसी से जगत् का विस्तार होता है और अस्तित्व वना रहता है । जगत् का सम्पूर्ण विलय भी इसी में रहता है । प्रकृति और इसकी शक्तियाँ, ब्रह्म के ही अंश हैं । इस तरह उपनिषदों का ब्रह्म समस्त प्राणियों में अन्तर्भूत, किंवा विश्वरूप है ।
उपनिषदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वहाँ 'जीव' (संसारी - आत्मा) वैयक्तिक आत्मा है । 'आत्मा' तो 'परमात्मा' है ही । ये दोनों, क्रमशः अन्धकार / प्रकाश रूप हैं । इनमें जीवात्मा अनुभवयुक्त है । अतः वह पूर्वकृत कर्मों के फलबन्ध से वह बँधा रहता है । जबकि आत्मा, 'नित्य' और 'कर्मबन्धमुक्त' है ।
इस तरह के आत्मा का उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना, और बाद में अपने बन्धनों तथा द्वैतभाव तोड़ छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूप, परमात्मत्व का सान्निध्य प्राप्त करना होता है ।
अनन्त कर्मबन्ध से बँधे हुए जीव की मुक्ति के लिये, मोक्ष मार्ग का निर्देश देते हुए कहा गया है - ' हेतुरूप ब्रह्म की उपासना से विशुद्ध मोक्ष, और कार्यरूप जगत् की उपासना से मोक्षरूप फल ( कर्मफल ) प्राप्त होता है । जो इन दोनों तथ्यों को युगपत् जानता है, वह 'मृत्यु' / 'असम्भूति' को जीतकर, 'मोक्ष' / 'सम्भूति' को प्राप्त करता है। 76
इस तरह, भारतीय तत्त्वविद्या की स्रोत रूप उपनिषदों में, जीवन की विभिन्न धाराओं का वर्णन, एक महोदधि में विलय की तरह प्रतिपादित किया गया है। यानी, अनेकता में एकता की स्थापना की गई है । इनका मुख्य महत्व यह है कि ये उपनिषत्, मानवता के लिए श्रेयस्कर / हितकर, दोनों ही प्रकार के तत्त्वों का समानता के साथ प्रतिपादन करती हैं ।
न्यायदर्शन - न्यायदर्शन में आत्मा को स्पर्श आदि गुणों से रहित, ज्ञान / चैतन्य का अर्मूत आश्रय, और निराकार स्वीकार किया गया है । वह देश / काल के बन्धन से मुक्त, सीमातीत, विभु और नित्य है । व इन्द्रियों का उपभोक्ता भी है । मन को, आत्मा और इन्द्रियों का संदेशवाहक माना गया है और बुद्धि को आत्मा का गुण । इस तरह आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि से भिन्न है । शरीर के साथ आत्मा का संयोग 'पूर्वकृत' के उपभोग के लिए होता है । इसलिए नैयायिक शरीर को आत्मा का 'भोगायतन' मानते हैं ।
न्याय-सिद्धान्तों के अनुसार, अनादिकाल से ही एक-एक जीव का मन के साथ संयोग है । इस
76. ईशोपनिषद् - 12/14
75. कठोपनिषद् - 1/2/12
१८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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