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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
भाषा ज्ञान चाहे कितना भी बहुआयामी हो, यदि शैली प्रभावपूर्ण और प्रवाही नहीं है तो कथ्य भली प्रकार सम्प्रेषित नहीं हो सकता । साध्वी जी के प्रवचनों में भाषा-प्रवाह के साथ-साथ शैलीगत सौन्दर्य की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं उपमा और रूपकों का यथा स्थान प्रयोग तथा प्रभावपूर्ण आत्मस्पर्शी सूक्तियों का निर्माण ।
अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए स्थानस्थान पर उपमा और रूपक जैसे सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग किया गया है । इस कारण अहिंसा, सत्य, करुणा, जैसी अमूर्त भावनाएँ मूर्तिवन्त होकर पाठक के हृदय पटल पर बिम्ब सा खड़ा कर देती हैं । यहाँ कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
१. अहिंसा एक महासरिता के समान है । जब वह साधक के जीवन में इठलाती बलखाती चलती है, तब साधक का जीवन सरसब्ज और रमणीय बन जाता है । (पृष्ठ-३) २. जैसे हवाई जहाज में दो यन्त्र होते हैं, एक - यन्त्र हव 1ई जहाज की रफ्तार को घटाता - बढ़ाता है और दूसरा यन्त्र दिशा का बोध कराता है । इसी प्रकार अहिंसा के साथ भी दोनों प्रकार के द्रव्य भाव रूप या बहिरंग - अन्तरंग रूप यन्त्र (पृष्ठ - ९ ) ३. करुणा जब मानव हृदय से निकल जाता है तब वह बुझा हुआ दीपक-सा बन जाता है ।
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(पृष्ठ-६६)
४. आप अहिंसा की रेलगाड़ी में बैठे हैं; कहीं उसके नीचे स्वार्थ और अहंकार को पटरियाँ तो नहीं छिपी हैं ? वह अन्याय और अत्याचार का धुंआ तो नहीं उगल रही हैं ? (पृष्ठ-६६) ५. व्यक्ति के मन का केमरा जैसा होता है वैसी ही तस्वीर खिंच जाती है । (पृष्ठ ११०)
६. अगर आप जीवन रूपी उद्यान में लगे हुए तन, मन और वचन रूपी पेड़-पौधों की निगरानी
२५४ | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन
नहीं रखेंगे, उसमें लगी हुई पाँचों इन्द्रियों रूपी लताओं की सुरक्षा-व्यवस्था नहीं रखेंगे, तब उनमें लगे हुए ब्रह्मचर्य, वीर्य संयम, निग्रह आदि फूलों का तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक बलरूपी फलों की प्राप्ति कैसे होगी ? (पृष्ठ- २२४)
७. दान के लिये धन संग्रह करने की लालसा (इच्छा) कीचड़ में पैर डालने के समान है ।
(पृष्ठ - २७४)
सूक्ति सामान्य कथन न होकर अनुभूत सत्य की सार्वकालिक अभिव्यक्ति होती है । उसमें सूक्ति का अनुभूत सत्य, गहन लोक संवेदन और शाश्वत मूल्यवत्ता निहित रहती है । साध्वी श्री पुष्पवतीजी के प्रवचनों में इस प्रकार की अनेक सूक्तियाँ हैं । जिनमें एक ओर शाश्वत जीवन मूल्य प्रतिविम्बित हैं तो दूसरी ओर वर्तमान जीवन और समाज को सम्यकू दिशाबोध है। कुछ सूक्तियों के उदाहरण देखिये
१. मनुष्य को विकास की ओर ले जाने वाली आन्तरिक प्रेरणा-अग्तः चेतना अहिंसा है । ( पृष्ठ- ८)
२. सच्चे प्रेम में देना ही देना होता है, लेने की भावना को वहाँ अवसर नहीं रहता । ( पृष्ठ - ३५ ) ३. प्रेम अन्तःकरण की ऐसी उपज है जो शुष्क से शुष्क, कठोर से कठोर और दिशाभ्रान्त जीवन को सरस, और स्निग्ध बना देती है । (पृष्ठ-३५)
४. अपनी आत्मा का जगत के साथ आत्मीपम्य भाव से अनुबन्ध जोड़ना ही योग है ।
(पृष्ठ-५५)
५. दया का आचरण करके ही मनुष्य देवत्व प्राप्त कर सकता है ।
(पृष्ठ-६२)
६. जीवित हृदय वही है, जहाँ अन्यथा केवल वह माँस का टुकड़ा है।
करुणा है, (पृष्ठ-६६ )
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