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साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
महासती प्रभावती जी की एक काव्य कृति
साहस का सम्बल : समीक्षण
- डॉ0 नित्यानंद शर्मा पी-एच. डी. डी. लिट् ( पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग जोधपुर )
महासती प्रभावतीजी स्थानकवासी जैन परम्परा की एक प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं। उनमें सहज कवित्वशक्ति थी । उनके द्वारा प्रणीत श्रीसेन हरिसेन नामक काव्य का मैंने आदि से लेकर अन्त तक अवलोकन किया । इस काव्य की कथावस्तु प्राचीन जैना वार्य चन्दाप्रभु के चरित्र में अन्तर्कथा के रूप में आई है । अतीत काल से ही मानव कथाप्रिय रहा है । कथा के द्वारा जो बात प्रतिपादित की जाती है, वह सहज ग्राह्य होती है । यही कारण है कि प्रत्येक देश के साहित्य में कथा - साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान रहा है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में विपुल कथा-साहित्य लिखा गया है, और उस कथा - साहित्य ने जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार किया है । संस्कृत साहित्य में पंचतन्त्र और हितोपदेश का अपना अनूठा महत्त्व रहा है तो अंग्रेजी साहित्य में ईसप, फेबिल्स का महत्त्व भी किससे छिपा हुआ है ? परमविदुषी महासती प्रभावतीजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कथा की महत्ता का वर्णन करते हुए लिखा है
कहानियों में क्या नहीं, भरा पड़ा है ज्ञान । नहीं दिया तो दीजिए, आप अभी भी ध्यान ॥ कहानियों में नीतियाँ, कहानियों में धर्म । कहानियों में है न क्या, कर्म, अकर्म, विकर्म ॥ कहानियों में रस भरे, मिलते रीति रिवाज । कहानियों से क्या नहीं, बदला गया समाज ॥
भारतीय मूर्धन्य मनीषियों ने कला, कला के लिए है; इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया है । कला जीवन के लिए है। वहीं बात काव्य के लिए भी है । काव्य निर्माण का भी एक उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है-सत्य का जन-जीवन में प्रचार करना, जीवन को सत्यं शिवं सुन्दरम् से मंडित करना । विदुषी लेखिका ने श्रीसेन और हरिसेन इन दोनों भ्राताओं के चरित्र के द्वारा सत्य, दया, विनयशीलता, सेवापरायणता प्रभृति सद्गुणों की प्रतिष्ठा की है । और साथ ही यह दिखाने का प्रयास किया है कि सांसारिक सुख वास्तविक सुख नहीं है, सुखाभास है । वह आकाश- कुसुम की तरह है । पारमार्थिक सुख ही सच्चा सुख है, और उसी सुख को प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए । राज्यासक्ति, परिवार - आसक्ति एक ऐसा विष है, जो जीवन को विकृत बनाता है । जन-जन के अन्तर्मानस में राग-द्व ेष के दावानल को सुलगाता है । जीवन को विषाक्त बनाता है, इसलिए लेखिका ने आसक्तियों से बचने का पवित्र संदेश इस चरित्र के माध्यम से दिया है ।
जब अन्तर्चक्षु, खुल जाते हैं । भोगों की वास्तविकता का पता लग जाता है, तो आसक्ति के तार कच्चे धागों की तरह टूट जाते हैं । जहाँ आसक्ति है, वहीं बन्धन हैं । अनासक्त व्यक्ति बन्धनों में बंध नहीं सकता । उसे भोग, रोग की तरह प्रतीत होते हैं, और राज्य कारागृह की तरह लगता है । फिर वह उसमें बंधता नहीं, किन्तु मुक्त होने के लिए छटपटाता है । श्रीसेन और हरिसेन दोनों ही भाइयों के अन्तर्मानस में जब वैराग्य का पयोधि उछालें मारता है तब राज्य-वैभव को ठुकराकर त्याग वैराग्य से छलछलाते हुए श्रमण जीवन को स्वीकार करने के लिए वे तत्पर हो जाते हैं । उनके हृत्तंत्री के सुकुमार तार झनझना उठते हैं कि मानव को राज्य और परिवार के बन्धन में नहीं बंधना चाहिये । देखिए कवयित्री के शब्दों में
साहस का सम्बल : समीक्षण
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