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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ || । गजानन के सूंड होती है वह सूंड विवेक तलवार के घाव से खून बहाता है । वैर के को प्रतीक है इसीलिए वह समृद्धि का अधिष्ठायक जहर से खून जलता है। माना है। - प्रेम दाम्पत्य जीवन का सार है। मोह [] कान होने पर भी जिसमें ज्ञान नही है दाम्पत्य जीवन का भार है। वह बहरे से भी गया बीता है। वह अन्दर में उतर 7 डिब्बे पर लिखा रहता है यह जनाना है, कर अन्तर्नाद नहीं सुनता। मर्दाना है पर टिकट पर नहीं लिखा रहता है वैसे 7 व्यर्थ का वार्तालाप विलाप हो जाता है ही शरीर जनाना और मर्दाना है, आत्मा नहीं। वह परस्पर मिलाप नहीं होने देता। ।। तार से बिजली शहर तक पहुँचती है। जब तक नदी सागर में नहीं मिलती तब वैसे ही महापुरुषों विचारों का आलोक जनता तक तक वह शान्त नहीं होती। पहुँचता है। [] घड़ा नष्ट होने पर भी मिट्टी नष्ट नहीं अन्न के कण, समय के क्षण और तल्लीन होती । मानव का देहान्त होने पर भी उसका अम- मन ये तीनों अपर्व धन है। ताश और सिनेमा में रत्व नष्ट नहीं होता। तथा गन्दे साहित्य के पढ़ने में समय का नाश - आलस्य अरस है उससे जीवन रस रहित करना जीवन का ह्रास है। बन जाता है। 0 पाप छुपाने से कभी भी छिपता नहीं, - जो व्यक्ति सतत् भविष्य की चिन्ता करता और प्रकट करने से पाप रहता नहीं। अतः पाप रहता है और भूतकाल का भूत उसे संतृप्त करता को प्रकट कर दो जिससे संताप नहीं होता। रहता है वह वर्तमान में आनन्दपूर्वक जी नहीं सोना प्रमाद है और जागना प्रमोद है । सकता। 0 बर्तन यदि गरम है तो वह संडसी से 0 धर्म आचरण का विषय है उच्चारण का उठाया जाता है वैसे ही संसार में विवेक से रहना नहीं। वस्तुतः अन्तःकरण की शुद्धि धर्म है बाह्य- चाहिए। शुद्धि श्रम हैं। 0 मानव का जीवन पुल की तरह है, पुल - संगीत अंतरंग भावोपलब्धि की अभि- रुकने के लिए नहीं होता. पार उतरने के लिए व्यक्ति है। होता है। बिना आचरण के केवल बौद्धिक ज्ञान सुग- - जिसके अन्तर्मानस में श्रद्धा का आधिपत्य न्धित 'शव के सदृश है। है वहां पर पत्थर भी बोल सकता है और जहां जिसका अन्तर्मानस आत्मज्ञान की सौरभ पर श्रद्धा का अभाव है वह बोलता हुआ भी पत्थर से सुरभित है वही सन्त है। के सदृश ही है। ] कोई व्यक्ति सिर का भार कन्धे पर रख वात्सल्य का प्रभाव केवल मनुष्यों एवं देता है और समझता है कि मैं हल्का हो गया हूँ समझदार जानवरों पर ही नहीं पेड़-पौधों और पर वस्तुतः वह हल्का नहीं होता । वैसे ही दुःखा वनस्पति जगत पर भी अचूक रूप से पड़ता है। भाव सुख नहीं, सुख प्रतीति में नहीं प्रीति में है। परमात्मा की शक्ति जितनी विराट व 0 दक्ष मानव ही लक्ष्य को प्राप्त कर सकता व्यापक है, उतनी ही व्यापक व विराट मानवीय है । वह असम संसार में से सम निकालता है। शक्ति है। २३२ 1 तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन www.jainelitra
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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