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पारन पुण्यवता आभनन्दन गन्थ# भी मौन रहता हूँ । संसार में वाचालों की कीमत कठोर बन जाऊँ तो प्राणियों का जीवन दूभर हो सदा कम होती है । अधिक बोलने वाला आभूषण- जायगा। पायल, पैरों में स्थान प्राप्त करता है और मौन -पर्वत ने एक बार पृथ्वी से कहा-जरा रहने वाला बोर सर पर गूंथा जाता है। मूल्य मुझे देखो ! मेरे पर उमड़-घुमड़ कर बादल आते रूप-रंग से, नहीं गुणों से आंका जाता है।
हैं और वे हजार-हजार धारा के रूप में बरसते हैं 0 काला-कलूटा कोयला अपने बदरूप रंग पर पर मैं अपने पास पानी को संग्रह करके नहीं आंसू बहा रहा था । एक सन्त उधर से निकला। रखता । इधर पानी आता है उधर में हजारउसने कोयले से कहा- क्यों चितित है ? मैं तुझे हजार हाथों में बाँट देता है। मैं चाहता है कि जनऐसा उपाय बताता हूँ जिससे तेरा रूप निरूप जन का कल्याण हो । पर तू तो जितना भी पानी जायेगा और तू सोने की तरह चमकने लगेगा। प्राप्त होना है उसे कंजूस की तरह अपने पास * कोयले ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-भगवन ! जमा कर लेती है। मुझे वह उपाय अवश्य बताइये। मैं अपने रूप को
पृथ्वी ने कहा-वत्स पर्वत ! सामर्थ्यवान व्यक्ति निखारना चाहता हूँ । सन्त ने कहा अग्नि के संस्पर्श
का त्याग ही सच्चा त्याग है। जिसे तू त्याग कह से तू चमचमाता हुआ अंगारा बन जायेगा। तेरे
रहा है वह त्याग नहीं है त्याग का उपहास है । मेरा में अद्भुत परिवर्तन हो जायेगा। कोयले में अग्नि संग्रह भी स्वयं के लिए नहीं पर के लिए है। स्नान कर अपने को तेजस्वी बना लिया।
D मक्खन निकले हुए दूध ने छाछ से कहाखेत लहलहा रहे थे। लहलहाते हुए खेतों लोगों में बुद्धि का अभाव है जो भोजन के बाद को देखकर सड़क ईर्ष्या से कुढ़ने लगी। उसे लगा तुम्हें पीते हैं । अब तुम्हीं बताओ कि मेरे में और ये खेत मेरा उपहास कर रहे हैं। अतः उसने खेतों
तुम्हारे में क्या अन्तर है? को.ललकारते हुए कहा-तुम असभ्य हो इसीलिए
छाछ ने कहा-मक्खन निकलने पर भी इस तरह झूम रहे हो पर तुम्हें पता नहीं, तुम्हारे
तुम्हारे में पाचन गुण का अभाव है और मेरे में नीचे कितना कूड़ा करकट है, गन्दगी है । मुझे देखो
पाचन गुण है जिससे लोग मुझे पीना पसन्द मैं कितनी स्वच्छ हूँ। कण मात्र भी धूल मेरे शरीर
करते हैं। पर नहीं है। चाहे कितनी भी वर्षा हो! आंधी
यार ] एक भक्त ने पहुँचे हुए साधक से पूछा
.. , नफान आये! मेरे पर न कीचड़ होता है और न जप और तप में कौन बड़ा है ? जप करना अच्छा वास हो उगता है। पर तुम तो जगला हा। कैया ना करना विज्ञान के चमचमाते युग में आउट ऑफ एटीकेट
साधक ने कहा-जप बड़ा है। जप में out of etiquette) है तुम्हारा यह जीवन । इस तप स्वतः आ जाता है पर तप में जप आता भी लिए तुम्हें मेरे जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर अपने है और नहीं आता। इसीलिए 'जपात्सिद्धिर्जजीने के ढंग में परिवर्तन करना चाहिए।
पात्सिद्धिर्जपात्सिद्धिर्न संशयः' कहा गया है। | खेत ने कहा-जिसे तुम गंदगी कहती हो ] भीष्म ग्रीष्म के ताप से तापित मानव ने वह गंदगी, जिन्दगी है । यदि कोई चाहे कि तुम्हारे बबूल के वृक्ष के नीचे विश्रान्ति के लिए शरण ली।
र अन्न पैदा किया जाए तो कदापि यह संभव बबूल ने तीक्ष्ण शूलों से उसका स्वागत किया। नहीं होगा। दूसरों को जीवन प्रदान करने के लिए पथिक ने शूलों की वेदना से व्यथित होते हए अपने को कष्टमय जीवन जीना पड़े तो घबराना कहा-क्या इस प्रकार शूलों से स्वागत करना नहीं चाहिए। यदि मैं तुम्हारी तरह स्वच्छ और शोभास्पद है ?
१२६ | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन