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चल रहा था । मानो घड़ी की सुई चल रहो हो । वह वर न इधर देखता था और न उधर देवता था वह तो नीची दृष्टि किये हुए अपने लक्ष्य को ओर बढ़ रहा था।
मैं यह देखकर चिन्तन करने लगी। यह वर वधु को प्राप्त करने के लिए कितना सावधा और एकाग्र बना हुआ है । वर यात्रो आपस में वातालाप कर रहे हैं। हँसी-मजाक कर रहे हैं। पर व राजा न बोल रहा है और न हँसी-मजाक ही कर रहा है । क्योंकि इसे वधू चाहिए।
शिववधू प्राप्त करने के लिए भी साधक को इससे अधिक एकाग्र बनने की आवश्यकता है । म वचन और काया के योग का निरुन्धन करने वाला व्यक्ति ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
(६) मैं एक गांव में ठाकुर साहब के महल में ठहरी हुई थो । ठकुरानी ने जब प्रवचन सुना वहुत ही प्रभावित हुई । ठाकुर साहब भी हमारे पास आकर बैठ गये। उन्होंने वार्तालाप के प्रसंग कहा-महासतीजी ! आपके अनुयायी जैनी लोग बहुत पैसे वाले होते जा रहे हैं। मैंने जयपुर में है-जैनी सेठों के वैभव को, राजा-महाराजाओं के वैभव से भी अधिक वैभव उनके पास है। एक हमारे पास भी वैभव का अम्बार लगा हुआ था। पर आज तो हमारी आर्थिक स्थिति दयनीय: गई है। मेरी ही नहीं सभी ठाकुर और राजा-महाराजाओं को यही स्थिति है। इसका कारण है ?
मैंने कहा-क्षत्रिय जाति पौरुष की जीती-जागती प्रतीक रही है। जितने भी महापुरुष हैं, चाहे वे तीर्थंकर हों, चाहे अवतारी महापुरुष हुए हों वे सभी क्षत्रिय ही थे। क्षत्रिय जाति दिन सद्गुणों की उपासिका थी जिससे उसका विकास हुआ। पर जब क्षत्रिय जाति माँस, म शिकार और विलास के दल-दल में फंस गई तब से उसका पतन प्रारम्भ हुआ। जब तक क्षत्रिय व्यसनों से मुक्त नहीं होगी। तब तक उसका विकास संभव नहीं है। जैनो लोग सदा से व्यसनों से रहे हैं। इसीलिए उनका विकास हुआ है । जैनियों ने अपनी सम्पत्ति समाज, राष्ट्र और धर्म के लिए समर्पित की है।
ठाकुर साहब को समाधान मिल गया। उन्होंने उस समय व्यसनों का परित्याग कर दिया।
(७) एक बहन मेरे पास पहुँची । उसका चेहरा मुरझाया हुआ था। मैंने उस बहन से आप उदास क्यों हैं ?
उस बहन ने आंखों से आंसू बहाते हुए कहा कि अगुक बहन आपकी निन्दा कर रहे मैने उसने कहा ... चलो, महासतीजी के पास हम बात का निर्णय कर लेंगी। पर वह यहाँ आने तेयार नहीं हई । वह अपनी आदत से लाचार है और निन्दा करती है।
मैंन मुस्कराते हुए कहा--यह तो अच्छी बात हैं, वह निन्दा कर मेरे कर्मों को निर्ज करेगी। साधना में प्रतिपल-प्रतिअण मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित करेगी। निन्दा कर्म हमारा हित रहा है । दर्पण की भाँति वह हमारे दुर्गुणों के धब्बे को धोता है । एतदर्थ ही सन्त कवीर ने कहा निन्दको सदा सन्निकट रखो। जिससे वह बिना पानी और साबुन के भी मेल को साप रहे।
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