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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
कुछ दूर आगे बढ़ने पर आठ-दस लड़के बस्ता लेकर स्कूल की ओर जा रहे थे। मैंने उन वालगोपालों से पूछा-बताओ-तुम्हारा स्कूल यहाँ से कितना दूर है ?
लड़कों ने तपाक से पूछा- क्या आप स्कूल में पढ़ने जा रही हैं ?
उत्तर में मैंने कहा-पढ़ने के लिए नहीं, किन्तु ठहरने के लिए जा रही हूँ।
__ लड़कों ने मेरी ओर मुंह करके कहा-माताजी ! यदि आप पढ़ोगी नहीं, तो अनपढ़ रह जाओगी । आज का युग पढ़ने का है ।
मैं बालकों की बात सुनकर सोचने लगी-आजाद भारत के ग्रामीण बालक भी पढने का महत्त्व समझने लगे हैं । यह जागृति की निशानी है।
(२) मैं अपनी शिष्याओं के साथ एक गाँव में पहुँची । उस गाँव में एक भी जैन परिवार नहीं था । मैं जिस मकान में ठहरी थी। उसके सामने ही एक विशाल चबूतरा था। जहाँ पर सारे ग्रामवासी आकर बैठा करते थे। ग्रामवासियों ने जब हमें देखा तो परस्पर हमारी ही चर्चा करने लगे । एक वृद्ध सज्जन ने तम्बारू पीते हुए कहा-देखो, ये जैन साध्वियाँ हैं जो किसी को भी कष्ट नहीं देतीं । मूर्ख लोगों ने इनके सम्बन्ध में कितनी भ्रान्त वारणाएँ बना रखी हैं ? पर देखो, ये कितनी सीधी और सरल हैं। मैं तो इनको वर्षों से जानता हूँ। ये हमारे घरों में से अपने नियमानुसार भिक्षा ग्रहण करती हैं। यदि हम इनके लिए बढ़िया भोजन बनाकर देते हैं तो भी यह ग्रहण नहीं करतीं। इनका जीवन बड़ा सन्तोषी है।
दूसरे वृद्ध ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए कहा-हमारे भी तो साधु आते रहते हैं । वे अपने आपको वैरागी कहते हैं। पर उनके आस-पास भी कहीं वैराग्य दिखलाई नहीं देता। उनके तो बाल-बच्चे और पूरा परिवार ही होता है । वे उदासी और सन्यासी कहला करके भी पूरे गृहस्थ की तरह होते हैं । पर यह देखो साध्वियां वैरागी भी हैं, त्यागी भी हैं और साथ ही परम विदुषी भी हैं। इन्हें रामायण, महाभारत, गीता और वेदों व पुराणों का भी अध्ययन है। इनके प्रवचनों ने तो हमारी आँखें खोल दीं। वस्तुतः जैन साधु और साध्वियों ने ही साधुत्व को जीवित रखा है।
X (३) मैं एक बार बाड़मेर जिले में पहुँची। बाड़मेर जिले में जैनियों की भरपूर आबादी है। वहाँ के जैन परिवार समृद्ध भी हैं । साथ ही रूढ़िचुस्त भी है।
मैं मध्याह्न में बैठी हुई आवश्यकनियुक्ति की स्वाध्याय कर रही थी। एक बहन ने नमस्कार कर मुझे कहा-मेरे श्वसुरजी का देहान्त हो गया। मेरी सासु बहुत ही धर्मात्मा हैं। जब उन्हें यह ज्ञात हो जाय कि गाँव में साधु या साध्वियाँ पधारी हैं तो वे उनके दर्शन किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करती । वे घर से बाहर नहीं निकलती है । अतः उन्होंने निवेदन करवाया है।
मैंने उस बहन से पूछा-तुम्हारे श्वसुरजी को दिवंगत हुए कितना समय हो गया ? उस बहन ने कहा-दस वर्ष हो गए हैं । अभी दो वर्ष तक सासुजी घर में ही रहेंगी।
मैं साध्वियों के साथ उस बहन को दर्शन देने हेतु पहुँची। मैंने उस बहन से कहा-तुम्हारे पति का वियोग हो गया है । पर तुमने तो धर्म-श्रवण का भी वियोग कर लिया है। तुम्हारे जैसी समझदार बहन भी कुरीतियों की चंगुल में फंसी रहेगी तो फिर दूसरों से क्या अपेक्षा की जा सकेगी। तुम दस वर्षों से इस कुरीति का सम्पोषण कर रही हो। रात-दिन आर्तध्यान करतो हो। फिर धर्मध्यान
२१६ | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन