________________
साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
सरलता होती है वहीं धर्म का निवास होता है । आपका प्रस्तुत वर्षावास धार्मिक दृष्टि से बहुत ही प्रभावक रहा । हरमाड़ा निवासियों ने भक्ति भाव से विभोर होकर खूब तप-जप की साधना की। चाहे जैन हो चाहे अजैन सभी लोग नियमित समय पर प्रवचन में उपस्थित होते। कितने ही अजैन महानुभाव तो ऐसे थे कि प्रवचन प्रारम्भ होने के पूर्व ही प्रवचन हॉल में आकर बैठ जाते थे जो उनकी प्रवचन श्रवण की सहज अभिव्यक्ति थी।
हरमाड़ा में नाथ सम्प्रदाय का एक प्राचीन मठ है, उस मठ के महन्त जी बहुत ही विचारक और भावना प्रधान व्यक्ति हैं। पहले पृथक सम्प्रदाय होने के कारण वे महासती जी के सत्संग से कतराते रहे, पर जब एक बार उन्होंने प्रवचन सुना तो उनके विचारों का कायाकल्प ही हो गया। उन्होंने विदाई समारोह के पावन प्रसंग पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा मैं वैदिक परम्परा का एक प्रतिनिधि हैं। वैदिक परम्परा का प्रतिनिधि होने के कारण जैन परम्परा के श्रमण और श्रमणियों के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएँ पनप रही थी, पर मातृस्वरूपा महासतीजी के सम्पर्क में आकर मेरी सारी भ्रान्तियाँ नष्ट हो गईं। महासतीजी जैन धर्म और दर्शन की गम्भीर ज्ञाता हैं ही किन्तु वैदिक और बौद्ध परम्परा की भी ये इतनी ज्ञाता हैं कि हमें आप श्री से विचार-चर्चा कर बहुत कुछ जानने को मिला है। मैं इस सरस्वती पुत्री का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ।
प्रस्तुत वर्षावास में अनेक बालक और बालिकाओं ने आप से प्रतिक्रमण, भक्तामर, कल्याण मन्दिर, तत्त्वार्थ सूत्र आदि का अध्ययन किया। इस वर्षावास में जिन लोगों ने कभी भी एक उपवास नहीं किया था उन्होंने आठ-आठ नौ-नौ दिन की तपस्या कर यह सिद्ध कर दिया कि भक्ति में कितनी शक्ति है । जब हृदय में भावना की प्रधानता होती है तब तप भार रूप नहीं होता। आपकी सुशिष्या महासती प्रियदर्शना ने गर्म जल के आधार से इक्कीस दिन की तपस्या की। उनका विचार एक महीने तप करने का था, पर महासती श्री चत्तरकुंवरजी के रुग्ण हो जाने के कारण सेवा की महत्ता को समझकर २१ दिन का ही पारणा कर लिया। इस वर्षावास में दिल्ली, बम्बई, सूरत, अजमेर, उदयपूर, जोधपूर आदि के अनेक भावुक भक्तों ने समय-समय पर उपस्थित होकर दर्शनों का लाभ लिया और विविध वस्तुओं की प्रभावनाएँ देकर अपनी भक्ति को उजागर भी किया।
महासती चत्तरकुंवरजी, जो लम्बे समय से वृद्धावस्था के कारण रुग्ण स्थिति में चल रही थीं. किन्त उनका मनोबल और आत्म बल प्रशंसनीय था। वर्षावास के पश्चात् आप वहाँ से विहार कर मदनगंज पधारी । उपचार से लग रहा था कि स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है पर यह नहीं पता था कि दीपक गुल होने के पूर्व एक बार चमकता है । महासती जी की स्वस्थता भी सदा के विदाई के लिए थी। एक दिन देखते-देखते उन्होंने समाधिमरण हेतु संथारा संलेखना की भावना व्यक्त की। संथारा ग्रहण भी किया और समाधिपूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया।
जो फल खिलता है वह मुझौता भी है, जो सूर्य उदय होता है वह अस्त भी होता है। जो फूल खिले और मूाए नहीं यह असम्भव है । जो सूर्य उदय हो और कभी अस्त न हो यह कभी सम्भव नहीं। जन्म के साथ मत्यु का अविनाभाव सम्बन्ध है। जन्म और मृत्यु का चक्र अनादिकाल से चल रहा है। मृत्यु एक अनबूझ पहेली है जिसे कोई बूझ नहीं सका है । यह एक ऐसा रहस्य है, जिसे कोई समझ नहीं सका है । प्रिय जन के वियोग के आघात की चोट बड़ी गहरी होती है जो रह-रहकर सालती रहती है। दिमाग में तूफान, दिल में परेशानी और शरीर में शून्यता इन तीनों ने मिलकर महासतीजी पुष्पवतीजी पर ऐसा आक्रमण किया जिससे उनके हृदय की धड़कन बढ़ गई। वे सोचने लगीं पहले गुरुणी मैया का
१६६ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन