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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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लिक, सख विपाक, वीर स्तुति, आवश्यक सूत्र तथा नवतत्त्व, लवु दण्डक, गुणस्थानक द्वार आदि इकावन थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे । और अन्य जैन दर्शन व तत्त्व विद्या का परिज्ञान किया था ।
साध्वी पुष्पवतीजी की दिनचर्या पुष्पवतीजी प्रातःकाल चार बजे उठती और रात को दस बजे सोती थी। इस बीच साध्वाचार का परिपालन, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन, पठन-पाठन, गुरुसेवा, आहार-निहार आदि का क्रम चलता। आगम ग्रन्थों का अप्रमत्त अवलोकन आपके लिए अनिवार्य था। जैन श्रमण और श्रमणियाँ रात में रोशनी का प्रयोग नहीं करते इसलिए जब तक अक्षर दिखलाई देते तब तक आप पढ़ती रहती । और रात के अन्धेरे में अधीत विषय का स्मरण/चिन्तन करती रहती । आपकी गुरुभक्ति अद्वितीय थी।
दीक्षा धारण किए चार माह का समय पूर्ण हो गया। इस बीच माता तीजकुंवरि की व्याधि बढ़ती चली गई थी। सुन्दरि के मामा मालमसिंह जी डोसी उस समय हिम्मत नगर में सर्जन डॉक्टर थे । वे उदयपुर आए । उन्होंने देखा कि बहिन का हाथ अत्यधिक जल चुका है । उपचार सही न होने से पस पड़ गई है। ऐसी स्थिति में यदि समय पर सही उपचार नहीं किया गया तो जीवन का खतरा भी सम्भव है। अतः धन्नालाल और माता तीजकुवरि को लेकर हिम्मतनगर पहुँचे तथा उपचार करने लगे। प्रतिदिन जख्मों में से रसी निकाली जाती। ड्रेसिंग करते समय असह्य वेदना होती। क्योंकि उस समय शल्य चिकित्सा और औषध विज्ञान इतना विकसित नहीं था। माँ को अपार वेदना से कर व छटपटाते हुए देखकर बालक धन्नालाल भी जोर से चिल्लाता था। उसका एक ही आधार माँ थी।
और वह वेदना के झूले पर झूल रही थी । अपने प्यारे लाल को इस प्रकार रोते हुए देखकर माँ का गला रूध जाता था। कोई उपाय भी नहीं था। डॉक्टर मालम सिंह जी ने सोचा-यदि धन्नालाल यहाँ पर रहा तो दोनों माँ बेटे एक-दूसरे को देखकर आँसू बहाते रहेंगे। और इस तरह से दोनों रोते रहे तो चिकित्सा किस प्रकार हो सकेगी ? बालक को किस बहाने से यहाँ से हटाकर उदयपुर भेजा जाय । वे इस पर चिन्तन करने लगे।
अध्ययन में दिशा दर्शन उदयपुर में वर्षों के पश्चात् गुजरात, बम्बई, महाराष्ट्र, खान देश और मालवे की भूमि को पावन
देव महास्थविर श्री ताराचन्द जी म०; उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म० ठाणा दो से उदयपुर पधारे । सर्वत्र उल्लासमय वातावरण था। सद्गुरुणीजी श्री सोहनकंवरजी महाराज 'महासती कसमवती जी और पुष्पवतीजी आदि नई साध्वियों को लेकर गुरु-चरणों में पहुँची। दोनों ही बाल साध्वियों को देखकर गुरुदेव प्रसन्न हुए। उन्होंने उनके आगमिक ज्ञान की परीक्षा ली। दोनों ही परीक्षा में समुत्तीर्ण हुई । बड़े गुरुदेव के आदेश से उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. ने गुरुणीजी श्री सोहनकुंवर जी से कहाये दोनों प्रतिभा सम्पन्न हैं। इसलिए आप इन दोनों को संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ जैन आगम और इसके व्याख्या साहित्य को पढ़ाने के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य व्यवस्था करें। इनका व्यवस्थित अध्ययन करावें । एक-एक शब्द के अर्थ को समझने के लिए शब्दार्थ याद करना तो पल्लव ग्राही पाण्डित्य है। यदि मूल भाषाओं पर इनका अधिकार हो गया तो फिर कैसा भी साहित्य क्यों न हो ये बिना किसी की सहायता के अपने-आप अर्थअभिप्राय लगा लेंगी।
गुरुणीजी ने बहुत ही ध्यान से गुरुजी की बात सुनी। उन्होंने गहराई से इस बात पर चिन्तन किया । क्योंकि वह युग था, जब साधु या साध्वियाँ पण्डितों से नहीं पढ़ा करते थे। तथा पढ़ने
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१८८ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन