________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
नगरसेठ ने कहा-मैंने सुना है कि तू महासती मदनकुंवरजी और सोहनकुंवरजी के पास दीक्षा लेना चाहती है । हम तुझे अन्य साध्वियों के पास दीक्षा दिलाएं तो तुझे क्या एतराज है ?
सुन्दरि कुमारी ने कहा-गाड़ी चलाने वाला यदि कुशल नहीं है तो क्या आप उस गाड़ी में बैठना पसन्द करेंगे ? कुशल संचालक ही खतरे से गाड़ी को सकुशल पार कर देता है। वैसे ही साधना की गाड़ी का भी संचालक कुशल होना चाहिए। मुझे आत्मविश्वास है कि मैंने जिस गुरुणी को चुना है, महान् हैं। गुरुणीजी महाराज वृद्ध सतियों के सेवा के लिए चिर काल से उदयपुर में विराज रही हैं। आपने भी अनेक बार उनके दर्शन किए हैं। क्या आपको यह शंका है कि मैंने गुरुणी का चुनाव ठीक नहीं किया है ? यदि ठीक किया तो फिर बदलने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।
नगरसेठ नन्दलालजी ने कहा-महासती मदनकुंवरजी और सोहनकुंवरजी वे तो अजातशत्रु हैं। उनके सम्बन्ध में विरोधी विरोधी से व्यक्ति भी कुछ नहीं कह सकता। वे बहुत ही भाग्यशालिनी चारित्रनिष्ठा साध्वियाँ हैं।
नगरसेठ सुबह आठ बजे से लेकर सांयकाल चार बजे तक विविध दृष्टियों से सुन्दरि का परीक्षण करते रहे । अन्त में उन्होंने कहा-मुझे आत्मविश्वास है कि तेरा वैराग्य पक्का है। तू दीक्षा लेगी और हमारे सामने कोई प्रश्न आया तो हम योग्य समाधान करेंगे । हम तेरे कार्य में रुकावट पैदा नहीं करेंगे ।
सुन्दरिकुमारी दीक्षा के प्रसंग को लेकर उदयपुर के सुपरिन्टेण्डेंट रणजीतसिंहजी बक्शी के पास पहुंची और उन्हें यह विश्वास दिलवाया कि मैं जो मार्ग ग्रहण करने जा रही हूँ, वह उचित है।
__एक भाई एवं बहन के साथ सुन्दरि दीक्षा के प्रसंग को लेकर मजिस्ट्रेट के पास भी पहुंची। मजिस्ट्रेट ने सुन्दरि से पूछा-बताओ, तुम कितने वर्ष की है ? सुन्दरि झूठ बोलना नहीं चाहती थी अतः उसने मजिस्ट्रेट से ही पूछा-में आपके सामने खड़ी हूँ। मैं आपको कितने वर्ष की दिखलाई दे रही हूँ ?
मजिस्ट्रट सुन्दरि के हृष्ट-पुष्ट शरीर को देखकर और उसके लम्बे कद को देखकर बोलामुझे तो तुम अठारह-उन्नीस वर्ष को लग रही हो। जिन्होंने तुम्हारे लिए लिखा है कि तुम नाबालिग हो, उनका यह लिखना मिथ्या है । मैं लिखता हूँ कि तुम नाबालिग नहीं हो। इसलिए तुम अपना मार्ग चुनने में स्वतन्त्र हो ।
दीक्षा में कामना नहीं, भावना मुख्य मजिस्ट्रीट ने दूसरा प्रश्न किया कि तुम दीक्षा किस कामना से ले रही हो ?
सुन्दरि कुमारी ने उत्तर में कहा-मैं कामना से नहीं किन्तु भावना से दीक्षा ले रही हूँ । दीक्षा EH में कामना नहीं होती। दीक्षा का अर्थ है-"
र क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग।" दीक्षार्थी के मन में किसी प्रकार की आकांक्षाएँ नहीं होती। आकांक्षा तो जीवन का शल्य है। उस शल्य से निवृत्त होने के लिये ही तो दीक्षा का का पवित्र पथ अपनाया जाता है।
जिस दीक्षार्थी में विकारों से जूझने का साहस नहीं है। वह कायर है । कायर व्यक्ति प्रव्रज्या
१८४ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
ww