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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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दीवान और नगरसेठ : अनुकरण दीक्षा का मामला उलझ गया था। उसे सुलझाने के लिए सुन्दरिकुमारी उदयपुर के दीवान श्रीमान् बलवन्तसिहजी कोठारी के पास पहुंची। और उनसे कहा-आप धर्मनिष्ठ हैं। मैं किसी के बहकावे में आकर नहीं किन्तु अपनी स्वेच्छा से दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ। मोह के कारण चाचा आदि पारिवारिक जन इस कार्य में बाधक बन रहे हैं। यदि आप सहायक बन जाए तो कार्य सानन्द सम्पन्न हो सकता है।
दीवान बलवन्तसिंह जी कोठारी बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने सुन्दरि से कहा-बेटी ! तुम गृहस्थाश्रम में रहकर भी धार्मिक साधना कर सकती हो। फिर दीक्षा लेने की क्या आवश्यकता है ?
सुन्दरि कुमारी ने कहा- दीवान साहब ! पढ़ाई तो घर पर भी रहकर की जा सकती है। फिर विद्यालय, महाविद्यालय बनाने की क्या आवश्यकता है ?
दीवान बलवन्तसिंहजी ने उत्तर दिया-विद्यालयों में अध्ययन व्यवस्थित रूप से होता है। वैसा व्यवस्थित अध्ययन घर पर नहीं हो सकता । इसीलिए विद्यालय बनाये जाते हैं।
कुमारी ने तपाक से कहा-धार्मिक जीवन गृहस्थाश्रम में भी जिया जा सकता है पर वहां पर अनेक बाधाएँ हैं। और संयमी जीवन में उन बाधाओं का अभाव है। वहाँ पर जिस सरलता
और सुगमता से धार्मिक जीवन जिया जा सकता है, वैसा गृहस्थाश्रम में नहीं। इसीलिए तीर्थंकरों ने | व हजारों साधकों ने गृहस्थाश्रम को छोड़कर त्याग-मार्ग ग्रहण किया है। मैं उसी त्याग-मार्ग के स्कूल में | भर्ती होने जा रही हूँ।
दीवान बलवन्तसिंहजी सुन्दरि के 'अकाट्य तर्क को सुनकर प्रभावित हुए। उन्हें यह अनुभव हआ कि कन्हैयालाल जी बरड़िया की पोती तेज-तर्रार है। इसके रग-रग में संयम धारण करने की भावना है । अतः उन्होंने सुन्दरि के सिर पर हाथ रखकर कहा-यदि मेरे सामने तुम्हारी दीक्षा की कोई बात आई तो मैं अपनी ओर से अवश्य सहायता करूंगा। र सून्दरि दीक्षा के प्रसंग को लेकर उदयपुर के नगरसेठ नन्दलालजी बाफणा के पास भी पहुंची। नगरसेठ नन्दलाल जी बहुत ही समझदार और चिन्तनशील व्यक्ति थे। वे किसी भी प्रश्न पर सहज निर्णय नहीं करते थे। वे उस विषय में तलछट तक जाते और जब उन्हें सही प्रतीत होता तभी वे स्वीकृति सचक सिर हिलाते थे। सुन्दरिकुमारी से भी उन्होंने अनेक प्रश्न किए कि तुम्हारी माता तुम्हारे से प्यार नहीं करती हैं ? क्या तुम्हें वे जबरदस्ती दीक्षा दिलवा रही हैं ?
सून्दरिकुमारी ने उत्तर देते हुए कहा--पूज्यवर ! मेरी माता मुझसे इतना प्यार करती है कि | मैं जिसका वर्णन नहीं कर सकती । वे सदा मुझसे प्यार से पेश आती है। मुझे न खाने की दिक्कत है।
प्रतिदिन बढिया से बढ़िया खिलाती है। चटकीले-भड़कीले बढ़िया वस्त्र पहनाती है । वह तो मुझे दीक्षा दिलाना भी नहीं चाहती । जबरदस्ती का तो प्रश्न ही नहीं। जिसने भी आपको यह बात कही है, वह मिथ्या | है। दीक्षा मैं अपनी इच्छा से ले रही हूँ। पिताजी, दादाजी, नानाजी, बड़ी दादीजी के निधन से मेरे मन | में जीवन की नश्वरता का भान हुआ है । मैं सोचती हूँ कि जीवन एक मिट्टी का खिलौना है। जो तनिक मात्र भी ठेस लगते ही चकना-चूर हो जाता है। जीवन तो एक सन्ध्या की लालिमा है । जो अपनी क्षणिक चमक-दमक दिखलाकर विलीन हो जाती है । संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन और मरण के चक्र में पिसा जा रहा है । मैं उसी शाश्वत सुख की खोज में हूँ। जो सुख हमारे अन्दर भी छिपा पड़ा है। उस शाश्वत सुख को प्राप्त करने के लिए ही मैं दीक्षा के पथ को स्वीकार करना चाहती हूँ।
एक बूद, जो गंगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १८३
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