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साध्वीरत्नपुष्पवती आभनन्दन ग्रन्थ
आदि उसे क्रोध कराने के लिए तुले हुए थे। पर सुन्दरि के शान्त चेहरे को देखकर उनका मन अपने आप शान्त हो जाता।
घर में विवाह का प्रसंग था। कंचन भूआ दुल्हन बनकर आमोद-प्रमोद कर रही था। धूम-धाम से विवाह होने जा रहा था। उस समय सुन्दरि धर्मस्थानक में जाने के लिए तैयार हुई। किन्तु दादाजी ने उसे इसलिए रोक दिया कि दूल्हा और दल्हन को देखकर इसकी भावना परिवर्तित हो जाएगी। किन्त सुन्दरि उस समय सामायिक में बैठ गई और अपने ज्ञान-ध्यान में लीन हो गई। उसने आँख उठाकर भी दूल्हा और दुल्हन को नहीं देखा । अनुकूल परीषह को भी जब सुन्दरि सहन कर गई और विचलित नहीं हुई। तो दादाजी को यह आत्मविश्वास हो गया कि सुन्दरि दीक्षा अवश्य ग्रहण करेगी। वह रोकने पर भी रुकेगी नहीं।
दीक्षा में प्रतिबद्धता क्यों ? श्रीमान् कन्हैयालालजी बरडिया आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज और आचार्य गणेशी लालजी महाराज के परम भक्तों में से थे। वे प्रतिवर्ष वर्षावास में उनके दर्शन के लिए पहुँचते थे और चौका लगाकर सेवा में रहते भी थे। इसलिए अन्य मिलने वालों ने उनको उत्प्रेरित किया कि आपकी पोती बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न हैं। यदि इसे दीक्षा देना ही है तो हुक्मीचन्दजी महाराज के सम्प्रदाय में दो । दूसरी प्रम्प्रदाय में दीक्षा क्यों देते है ? दादाजी को वह सुझाव पसन्द आ गया और उन्होंने सुन्दरि
। जवाहरलालजी महाराज की सम्प्रदाय में दीक्षा लेना चाहती है तो मैं सहर्ष आज्ञा पत्र लिख देता हूँ । अन्य सम्प्रदाय में यदि तू दीक्षा लेना चाहती है तो मैं आज्ञा नहीं दूंगा।
सुन्दरि कुमारी ने कहा पूज्यवर आपने ही तो हमें गुरुणीजी के दर्शन करवाए। आपने ही तो कहा था-ये महान् भाग्यशाली साध्वियाँ हैं। मेरी दादीजी और माताजी के पीहर में भी इन्हीं गुरुणीजी की गुरुआम्ना है । आपने यह भी बताया था कि हमारे दादाजी आचार्य अमरसिंहजी म० के सम्प्रदाय के पूज्य पूनमचन्दजी म० के परम भक्तों में से थे। फिर दीक्षा लेने में सम्प्रदाय का क्या सम्बन्ध है ?
दीक्षा तो श्रद्धा का परिपक्व फल है। जहाँ भी वातावरण की अनुकूलता होती है, यह पक जाता है। इससे सम्प्रदाय आदि की शर्त या प्रतिबद्धता क्यों ? यह तो एक भाव प्रवाह है जिधर अनुकूल मार्ग मिला, बह निकलता है।
जितने भी सन्त और सतियाँ हैं, उन सभी के नियम एक सदृश हैं । पाँच महाव्रत, पाँच समिति तीन गुप्ति इनका पालन श्रमण जीवन के लिए आवश्यक है। यह नहीं है कि अमुक सम्प्रदायस्थ साधु साध्वी मुक्ति को वरण करेंगे । मुक्ति का प्रमाण-पत्र उन्हीं को मिला हुआ है।
क्या ऐसा कुछ है ? नहीं, तो फिर आपका यह आग्रह भी उचित नहीं है। संयम तो मुझे पालन करना है । मैंने जिस गुरुणी जी को चुना है। उनकी जैसी आत्मार्थिनी साध्वियाँ मिलना बहुत कठिन है। उनके जीवन में आचार और विचार का, ज्ञान और क्रिया का समन्वय हुआ है । वह अद्भुत है। उनके जीवन का कण-कण त्याग व वैराग्य के रंग से रंगा हुआ है। मेरी श्रद्धा उनके प्रति समर्पित हो गई है।
दादाजी कन्हैयालालजी के मन में भी महासतीजी के आचार और विचार के प्रति गहरी निष्ठा थी । वे जीवन के उषा काल से ही सन्त और सतियों के निकट सम्पर्क में रहे थे। उनके मन पर
१८० | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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