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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
गया। अतः धारिणी अर्धरात्रि में ही पुत्र और पति को छोड़कर अपने शील की रक्षा हेतु महल का परित्याग कर चल दी और कौशांबी की यानशाला में ठहरी हुई साध्वियों के पास पहुँची। उसे संसार से विरक्ति हो चुकी थी। वह सगर्भा थी। किन्तु उसने यह रहस्य साध्वियों को न बताकर साध्वी बनी। कुछ समय के पश्चात् गर्भ सूचक स्पष्ट चिन्हों को देखकर साध्वी प्रमुखा ने पूछा तब उसने सही स्थिति बतायी । गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया और रात्रि के गहन अंधकार में नवजात शिशु को उसके पिता के आभूषणों के साथ कोशांबी नरेश ने राजप्रासाद में रख दिया। राजा ने उस शिशु को ले लिया और उसका नाम मणिप्रभ रखा, और पुनः धारिणी ने प्रायश्चित्त लेकर आत्मशुद्धि के पथ पर चरण बढ़ाया।
अवन्तीवर्धन को भी जब धारणी न मिली तो अपने भाई की हत्या से उसे भी विरक्ति हुई। और धारिणी के पुत्र अवन्तीसेन को राज्य दे उसने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। जब मणिप्रभ और अवन्तीसेन ये दोनों भाई युद्ध के मैदान में पहुंचे तब साध्वी धारिणी ने दोनों भाइयों को सत्य-तथ्य बताकर युद्ध का निवारण किया। 1] दूसरी, तीसरी शताब्दी
आर्या यक्षा : अद्भुत धारणा शक्ति वीर निर्वाण की दूसरी-तीसरी सदी में महामन्त्री शक डाल की पुत्रियाँ और आर्य स्थूलभद्र की बहनें यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिना, से.णा, देणा, रेणा इन सातों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की थी। वे अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न थीं। मशः एक बार, दो बार यावत् सात बार सुनकर वे कटिन से कठिन विषयों को भी याद कर लेती थीं। उन्होने अन्तिम नन्द की राज्यसभा में अपनी अदभुत स्मरण शक्ति के चमत्कार से वररुचि जैसे मुर्धन्य विज्ञ के अहंकार को नष्ट किया था। सातों बहनों के तथा भाई स्थलभद्र के प्रवजित होने के पश्चात् उनके लघु भ्राता श्रीयक ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की जो अत्यन्त सुकोमल प्रकृति के थे। भूख और प्यास को सहन करने में अक्षम थे। साध्वी यक्षा की प्रबल प्रेरणा से श्रीयक ने उपवास किया और उसका रात्रि में प्राणान्त हो गया जिससे यक्षा ने मुनि की मृत्यु का कारण अपने आपको माना। दुःख, पश्चात्ताप और आत्मग्लानि से अपने आपको दृःखी अनुभव करने लगी। कई दिनों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। संघ के अत्यधिक आग्रह पर उसने कहा कि केवलज्ञानी मुझे कह दें कि मैं निर्दोष हूँ । अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्यथा नहीं। संघ ने शासनाधिष्ठात्री देवी की आराधना की । देवी की सहायता से आर्या यक्षा महाविदेह क्षेत्र में भगवान श्री सीमन्धर स्वामी की सेवा में पहुँची। भगवान ने उसे निर्दोष बताया और चार अध्ययन प्रदान किये। देवी की सहायता से वह पुनः लौट अयो। उहोने चारों अध्ययन संघ के समक्ष प्रस्त (वये जो आज चूलिकाओं के रूप में विद्यमान हैं। इन सभी साध्वियों का साध्वी संघ में विशिष्ट स्थान था पर ये प्रवतिनी आदि पद पर रहीं या नहीं इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख नहीं है। चौथी शताब्दी
महान् विदुषी आर्या पोइणी आदि इनके पश्चात् कौन साध्वियाँ उनके पट्ट पर आसीन हुईं यह जानकारी प्राप्त नहीं होती है । वाचनाचार्य आर्य बलिरसह के समय हिमवन्त स्व रावली के अनुसार विदुषी आर्या पोइणी तथा अन्य तीन सौ साध्वियाँ विद्यमान थीं। वलिग चत्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल द्वारा वीर निर्वाण चतुर्थ शताब्दी
१३% | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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